बिल के उस पार"
सफ़दर अली को लीवर संक्रमण के कारण आईसीयू में भर्ती हुए छह दिन हो चुके थे। उनकी पत्नी ज़ेबा, एक स्कूल टीचर, इलाज के ₹2,83,000 के भारी बिल को देखकर परेशान थी, क्योंकि डॉक्टरों ने अगले दिन तक आईसीयू का भुगतान करने या सफ़दर को जनरल वार्ड में शिफ़्ट करने के लिए कहा था। उसकी मासिक आय इस बिल का एक तिहाई भी नहीं थी। मदद के लिए, ज़ेबा ने सबसे पहले मस्जिद के इमाम साहब को फ़ोन किया, जिन्होंने चंदा इकट्ठा करने का आश्वासन दिया। फिर उसने स्कूल की प्रिंसिपल को कॉल किया, जिन्होंने व्हाट्सएप ग्रुप में मैसेज डालने की पेशकश की, लेकिन कोई आधिकारिक मदद नहीं की। उसकी आख़िरी उम्मीद वक़्फ़ बोर्ड की वेबसाइट भी बेकार साबित हुई। अगले दिन, सफ़दर की हालत बिगड़ने पर, डॉक्टर ने बताया कि लीवर ट्रांसप्लांट ज़रूरी है और इसका खर्च लगभग ₹18 लाख होगा। यह सुनकर ज़ेबा पूरी तरह टूट गई। उसे याद आया कि कैसे समाज के लोग दूसरों की मदद करने में उदासीन रहते हैं। कहानी इन सवालों के साथ समाप्त होती है कि क्या मस्जिदें और वक़्फ़ संपत्तियाँ वास्तव में ज़रूरतमंदों के लिए उपलब्ध हैं, क्या मुस्लिम समुदाय ने स्वास्थ्य आपात स्थितियों के लिए ठोस व्यवस्थाएँ की हैं, और क्या हम केवल प्रार्थनाओं तक ही सीमित रह गए हैं जब किसी को वास्तविक सहायता की आवश्यकता होती है। यह इस बात पर भी विचार करती है कि क्या समाज में किसी "ज़ेबा" को अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। यह कहानी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है: "जब कोई बीमार होता है, क्या हम केवल संवेदना भेजते हैं, या समाधान भी?"
माफ़ी का मर्म
यह कहानी एक बुजुर्ग मुस्लिम इमाम हाजी यूसुफ़ साहब की है, जिनके बेटे की नृशंस हत्या पड़ोस में रहने वाले एक युवक ने कर दी। हत्या का कोई मजहबी या व्यक्तिगत कारण नहीं था — बस घृणा और ग़लतफहमी से उपजा हिंसक आवेग। पूरे मोहल्ले में शोक और ग़ुस्से का माहौल था। लेकिन जब अदालत में हाजी यूसुफ़ से यह पूछा गया कि वे क्या सज़ा चाहते हैं, तो उन्होंने हत्यारे को माफ कर दिया। उन्होंने कहा, "अगर मैं बदला लूंगा, तो मैं भी उसी घृणा में जीऊंगा जिसने मेरे बेटे की जान ली। लेकिन अगर मैं माफ कर दूं, तो शायद यह घृणा का अंत हो।" यह निर्णय सबको चौंका देता है — पड़ोसी, गैर-मुस्लिम मित्र, और समाज के वे लोग भी जो सोचते थे कि धर्म अलग करता है। इस माफ़ी ने लोगों को आत्म-चिंतन के लिए मजबूर कर दिया: जब ग़लती उसकी नहीं थी, तो वह फिर भी माफ कैसे कर सका? क्या हम दूसरों की गलतियों को इस तरह क्षमा कर सकते हैं? क्या हमारा धर्म, जाति, या पूर्वग्रह हमें मानवता से दूर कर रहे हैं? "माफ़ी का मर्म" सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई से निकली इंसानियत की पुकार है — यह दिखाती है कि सच्ची शक्ति बंदूक में नहीं, माफ़ी में होती है।
माँ हूँ मैं – सलमा की कहानी"
"माँ हूँ मैं – सलमा की कहानी" यह कहानी एक जुझारू माँ सलमा बी की है, जो अपने निर्दोष बेटे रामिज को झूठे चोरी के आरोप से बचाने के लिए अकेले लड़ती है। बिना पैसे, बिना सहारे, लेकिन सच्चाई और ममता के बल पर वह गवाह ढूंढती है, सबूत इकट्ठा करती है और अंततः अपने बेटे को जेल से आज़ाद कराती है। यह कहानी हर माँ के हौसले और हर बेगुनाह की उम्मीद का प्रतीक है।
Someone once hurt me, but I choose to forgive
Choosing to forgive
मुझे बचाने को ...............
मुझे बचीने के लिए...............
खामोश गली..................
सूनसान ..........................