माफ़ी का मर्म
(एक सच्चाई से प्रेरित कहानी)
लखनऊ के पुराने मोहल्ले में एक छोटा-सा घर था, जिसकी छत पर एक नीली चादर हर शाम सूखने के लिए डाली जाती थी। उसी घर में रहते थे इमाम फहीम साहब—मस्जिद के पेश इमाम, जिनकी नमाज़ में जितनी सादगी थी, उतनी ही सच्चाई उनकी ज़िंदगी में भी। सफेद दाढ़ी, हमेशा इत्र की हल्की खुशबू, और आँखों में एक गहरी शांति।
उनका बेटा समीर, 22 साल का, इंजीनियरिंग पढ़ रहा था। हंसता-खेलता, लोगों की मदद करने वाला, मोहल्ले का चहेता लड़का। पर एक दिन, शहर में हुए एक राजनीतिक झगड़े में, कुछ गुस्साई भीड़ ने समीर को सिर्फ़ उसकी टोपी देखकर मार डाला।
"गलती सिर्फ़ इतनी थी कि वो मुसलमान था।"
शहर में शोक फैल गया। मोहल्ले के लोग स्तब्ध थे। क्या इतना आसान था किसी की ज़िंदगी छीन लेना? क्या टोपी देखकर इंसान की नियत तय हो जाती है?
हत्या के बाद, पुलिस ने कई लोगों को पकड़ा। मुख्य आरोपी था राकेश—एक 19 साल का लड़का, जिसने गुस्से में आकर पत्थर फेंका था। वही पत्थर समीर की मौत की वजह बना।
पूरा मोहल्ला उम्मीद कर रहा था कि इमाम साहब अदालत में कड़ा रुख अपनाएंगे। लेकिन जो हुआ, उसने सबको चौंका दिया।
"मैं उसे माफ़ करता हूँ,"
फहीम साहब ने जज के सामने कहा,
"क्योंकि मैंने अपने बेटे को कुरआन पढ़ाया था—जिसने कहा, माफ़ करना बेहतर है।"
कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
"क्या आपके दिल में ग़ुस्सा नहीं?"
एक पत्रकार ने पूछा।
"ग़ुस्सा था,"
फहीम साहब बोले,
"लेकिन मेरा ग़ुस्सा मुझे इंसाफ़ नहीं देगा, सिर्फ़ आग देगा। आग से मैं और किसी मां का बेटा नहीं जलाना चाहता।"
वो लोग जो उनके पड़ोसी थे, रात को करवटें बदलते रहे। क्या हम इतने नफ़रत से भरे हैं कि मासूमों को पहचानने में चूक कर जाते हैं?
"हमारे ही घर के पास इंसानियत रो रही थी, और हम खामोश थे..."
ये विचार कई दिलों में गूंजने लगे।
ग़ैर-मुस्लिम पड़ोसी विमल ने अपनी पत्नी से पूछा:
"फहीम साहब ने तो कुछ नहीं किया था, फिर क्यों उन्हें ये सहना पड़ा?"
पत्नी चुप रही, पर उसकी आँखों में पश्चाताप था।
प्रश्न जो अब हवाओं में तैरते हैं:
- क्या धर्म के नाम पर पहचानने का पैमाना बदल चुका है?
- क्या हम एक टोपी, एक तिलक, एक नाम देखकर तय कर लेते हैं कि सामने वाला दुश्मन है?
- जब फहीम साहब के जैसे लोग माफ़ कर सकते हैं, तो क्या हम नफ़रत करना बंद कर सकते हैं?
अंत में फहीम साहब ने मस्जिद में कहा:
"अगर मेरी माफ़ी से किसी एक दिल में मोहब्बत आ जाए, तो समीर की मौत व्यर्थ नहीं जाएगी।"
यह कहानी नहीं, एक आईना है।
देखिए, कहीं हम उसमें दोषी न निकल जाएँ।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.