fazal Esaf
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Fazal Abubakkar Esaf is a passionate writer known for his thought-provoking insights and concise storytelling. With a unique voice and a deep curiosity about the world, Fazal crafts narratives that resonate across cultures and experiences.
"मदीना को लिखे गए ख़त"
हर जुमे की सुबह एक बूढ़ा आदमी अपने दिल के टुकड़े काग़ज़ पर रख देता था — मदीना के नाम।" ‘मदीना को लिखे गए ख़त’ एक रूहानी, मोहब्बत-भरी कहानी है, जो इबादत और इंतज़ार के धागों से बुनी गई है। गुलज़ार की नज़्मों की तरह नरम, और दिल को छू लेने वाली इस कहानी में, एक पोती अपने दादा के उन ख़ामोश ख़तों को पढ़ती है, जो मदीना को नहीं, बल्कि अल्लाह से की गई एक धीमी, टूटती बातचीत होते हैं। यह कहानी है उन अल्फ़ाज़ों की जो कभी भेजे नहीं जाते, उन दुआओं की जो जवाब नहीं मांगतीं—बस यकीन रखती हैं।
कहानी का शीर्षक: "मिट्टी के साथी"
"मिट्टी और मनुष्य" एक मार्मिक कहानी है जो शहरी जीवन की भागदौड़ और प्रकृति से अलगाव के बीच, मिट्टी और उसके सबसे छोटे जीवों — केंचुओं — के महत्व को दर्शाती है। कहानी फ़ज़ल एसाफ नाम के एक युवा, संस्कारी किसान के बेटे के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी गाँव की मिट्टी और उसके अनदेखे नायकों के प्रति गहरी समझ रखता है। कहानी की शुरुआत ठाणे के एक छोटे से कस्बे में बारिश के बाद की सुबह से होती है, जहाँ फ़ज़ल सड़क पर रेंगते केंचुओं को देखकर विचलित हो जाता है, क्योंकि लोग उन्हें बिना सोचे-समझे कुचल रहे हैं। वह एक केंचुए को उठाकर सुरक्षित स्थान पर रखता है और मन ही मन बुदबुदाता है कि लोग इस "कीड़े" की अहमियत नहीं समझते, जबकि यही उनकी "रोटियों" से जुड़ा है। आगे चलकर, फ़ज़ल का सामना तीन अलग-अलग राहगीरों से होता है: एक तेज़-तर्रार कॉर्पोरेट महिला, अदिति मैडम; एक अनुभवी बुज़ुर्ग, शास्त्री जी; और एक नन्हा लड़का, आर्यन। सबसे पहले, अदिति मैडम अनजाने में एक केंचुए को कुचल देती हैं। फ़ज़ल उन्हें रोकता है और विनम्रता से समझाता है कि यह "कीड़ा" नहीं, बल्कि "किसान का दोस्त" है जो मिट्टी को साँस देता है और ज़मीन को उपजाऊ बनाता है। अदिति शुरुआत में झिझकती हैं, लेकिन फ़ज़ल के शब्दों में छिपी सच्चाई उन्हें सोचने पर मजबूर कर देती है। इसके बाद, शास्त्री जी फ़ज़ल की बात का समर्थन करते हैं और अपने पुराने दिनों को याद करते हैं जब केंचुए को खेत में देखना अच्छी फसल का संकेत माना जाता था। वे आधुनिक समाज में मिट्टी से बढ़ती दूरी पर चिंता व्यक्त करते हैं। फ़ज़ल उन्हें समझाता है कि लोग मिट्टी को गंदगी समझते हैं, जबकि वही "गंदगी" उनकी थाली में गेहूं बनकर आती है, और केंचुए ही बिना किसी स्वार्थ के ज़मीन को जोतते हैं। कहानी में एक मार्मिक मोड़ तब आता है जब आर्यन, एक छोटा लड़का, केंचुए को "साँप जैसा कुछ" समझता है। फ़ज़ल धैर्य से उसे बताता है कि यह एक अर्थवर्म है जो मिट्टी को अंदर से जोतता है, हवा, पानी और बीज को पनपने में मदद करता है। वह आर्यन को समझाता है कि वह जो सब्ज़ियाँ खाता है, वे कहीं न कहीं केंचुए के कारण ही उगती हैं, जिससे आर्यन केंचुए को अपना दोस्त समझने लगता है। आर्यन की माँ भी इस छोटे लेकिन गहरे सबक के लिए फ़ज़ल को धन्यवाद देती हैं। एक छोटी सभा में, फ़ज़ल अदिति, शास्त्री जी और आर्यन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि भले ही वे शहर में रहते हों और वह गाँव से हो, लेकिन "मिट्टी" ही वह धागा है जो उन सबको जोड़ता है। वह शहरी लोगों से मिट्टी के प्रति संवेदना रखने और छोटे जीवों को बचाने की अपील करता है। शास्त्री जी भावुक होकर कहते हैं कि जो समाज ज़मीन से रिश्ता तोड़ता है, वह रिश्तों की अहमियत भी भूल जाता है। कहानी का चरमोत्कर्ष तब आता है जब फ़ज़ल अपने झोले से एक मुट्ठी मिट्टी उठाता है जिसमें एक केंचुआ रेंग रहा होता है। वह भावनात्मक स्वर में समझाता है कि यह मिट्टी केवल मिट्टी नहीं, बल्कि "जीवन" है, जिसमें "मेहनत" और "उम्मीद" है। वह चेतावनी देता है कि जिस दिन केंचुए कम हुए, उस दिन रोटी भी महंगी हो जाएगी, मिट्टी बंजर हो जाएगी, और दिल भी। यह सुनकर आर्यन अब हर केंचुए को ध्यान से देखता है और वादा करता है कि वह उन्हें कुचलेगा नहीं। कहानी एक शक्तिशाली मोनोलॉग के साथ समाप्त होती है, जिसमें फ़ज़ल की आवाज़ बताती है कि शहर भले ही चमकता हो, लेकिन उसकी नींव वही मिट्टी है जो गाँवों में साँस लेती है। वह जोर देता है कि अगर हम मिट्टी को मारते रहेंगे, तो हम भी धीरे-धीरे मरेंगे, "बिना आवाज़ के, बिना मिट्टी के।" अंतिम पंक्तियाँ एक काव्यात्मक संदेश देती हैं: "जो रेंगता है ज़मीन पर, वो थामे है आसमान को। न कुचलिए उसे, क्योंकि वो पालता है हमें… चुपचाप।" संदेश: यह पटकथा एक सरल लेकिन गहन संदेश देती है: "ज़मीन पर चलिए, मगर ज़मीन को समझकर चलिए। क्योंकि वहीं से जीवन उगता है।" यह कहानी हमें प्रकृति के सबसे छोटे सदस्यों के महत्व को पहचानने और उसके साथ हमारे संबंध को फिर से स्थापित करने के लिए प्रेरित करती है।
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बिल के उस पार"
सफ़दर अली को लीवर संक्रमण के कारण आईसीयू में भर्ती हुए छह दिन हो चुके थे। उनकी पत्नी ज़ेबा, एक स्कूल टीचर, इलाज के ₹2,83,000 के भारी बिल को देखकर परेशान थी, क्योंकि डॉक्टरों ने अगले दिन तक आईसीयू का भुगतान करने या सफ़दर को जनरल वार्ड में शिफ़्ट करने के लिए कहा था। उसकी मासिक आय इस बिल का एक तिहाई भी नहीं थी। मदद के लिए, ज़ेबा ने सबसे पहले मस्जिद के इमाम साहब को फ़ोन किया, जिन्होंने चंदा इकट्ठा करने का आश्वासन दिया। फिर उसने स्कूल की प्रिंसिपल को कॉल किया, जिन्होंने व्हाट्सएप ग्रुप में मैसेज डालने की पेशकश की, लेकिन कोई आधिकारिक मदद नहीं की। उसकी आख़िरी उम्मीद वक़्फ़ बोर्ड की वेबसाइट भी बेकार साबित हुई। अगले दिन, सफ़दर की हालत बिगड़ने पर, डॉक्टर ने बताया कि लीवर ट्रांसप्लांट ज़रूरी है और इसका खर्च लगभग ₹18 लाख होगा। यह सुनकर ज़ेबा पूरी तरह टूट गई। उसे याद आया कि कैसे समाज के लोग दूसरों की मदद करने में उदासीन रहते हैं। कहानी इन सवालों के साथ समाप्त होती है कि क्या मस्जिदें और वक़्फ़ संपत्तियाँ वास्तव में ज़रूरतमंदों के लिए उपलब्ध हैं, क्या मुस्लिम समुदाय ने स्वास्थ्य आपात स्थितियों के लिए ठोस व्यवस्थाएँ की हैं, और क्या हम केवल प्रार्थनाओं तक ही सीमित रह गए हैं जब किसी को वास्तविक सहायता की आवश्यकता होती है। यह इस बात पर भी विचार करती है कि क्या समाज में किसी "ज़ेबा" को अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। यह कहानी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है: "जब कोई बीमार होता है, क्या हम केवल संवेदना भेजते हैं, या समाधान भी?"
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माफ़ी का मर्म
यह कहानी एक बुजुर्ग मुस्लिम इमाम हाजी यूसुफ़ साहब की है, जिनके बेटे की नृशंस हत्या पड़ोस में रहने वाले एक युवक ने कर दी। हत्या का कोई मजहबी या व्यक्तिगत कारण नहीं था — बस घृणा और ग़लतफहमी से उपजा हिंसक आवेग। पूरे मोहल्ले में शोक और ग़ुस्से का माहौल था। लेकिन जब अदालत में हाजी यूसुफ़ से यह पूछा गया कि वे क्या सज़ा चाहते हैं, तो उन्होंने हत्यारे को माफ कर दिया। उन्होंने कहा, "अगर मैं बदला लूंगा, तो मैं भी उसी घृणा में जीऊंगा जिसने मेरे बेटे की जान ली। लेकिन अगर मैं माफ कर दूं, तो शायद यह घृणा का अंत हो।" यह निर्णय सबको चौंका देता है — पड़ोसी, गैर-मुस्लिम मित्र, और समाज के वे लोग भी जो सोचते थे कि धर्म अलग करता है। इस माफ़ी ने लोगों को आत्म-चिंतन के लिए मजबूर कर दिया: जब ग़लती उसकी नहीं थी, तो वह फिर भी माफ कैसे कर सका? क्या हम दूसरों की गलतियों को इस तरह क्षमा कर सकते हैं? क्या हमारा धर्म, जाति, या पूर्वग्रह हमें मानवता से दूर कर रहे हैं? "माफ़ी का मर्म" सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई से निकली इंसानियत की पुकार है — यह दिखाती है कि सच्ची शक्ति बंदूक में नहीं, माफ़ी में होती है।
#Why do you hate muslim #Why you killed Innocent muslim
माँ हूँ मैं – सलमा की कहानी"
"माँ हूँ मैं – सलमा की कहानी" यह कहानी एक जुझारू माँ सलमा बी की है, जो अपने निर्दोष बेटे रामिज को झूठे चोरी के आरोप से बचाने के लिए अकेले लड़ती है। बिना पैसे, बिना सहारे, लेकिन सच्चाई और ममता के बल पर वह गवाह ढूंढती है, सबूत इकट्ठा करती है और अंततः अपने बेटे को जेल से आज़ाद कराती है। यह कहानी हर माँ के हौसले और हर बेगुनाह की उम्मीद का प्रतीक है।
#Justice #Innocents
गांव और इंसाफ़
यह कहानी पंडित रामलाल और उनकी पत्नी सीता देवी की है, जो एक ऐसे गाँव में रहते हैं जहाँ हिंदू और मुस्लिम समुदाय सदियों से शांति और सौहार्द से रह रहे थे। एक दिन, देश के किसी दूसरे हिस्से में हुए एक आतंकवादी हमले के बाद, गाँव का माहौल बिगड़ जाता है। कुछ कट्टरपंथी ग्रामीण गुस्से में आकर गाँव के मुस्लिम परिवारों को धमकाने लगते हैं और उन्हें अपने घर खाली करने का आदेश देते हैं, उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाते हैं। गाँव के मुस्लिम परिवारों में से एक, सलमा बेगम और उनके परिवार को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता है। जब भीड़ उन्हें उनके घर से निकालने की कोशिश करती है, तो पंडित रामलाल और सीता देवी उनके बचाव में आगे आते हैं। पंडित रामलाल भीड़ से सवाल करते हैं कि क्या किसी एक व्यक्ति के गलत काम के लिए पूरे समुदाय को दोषी ठहराना सही है। वह तर्क देते हैं कि अगर ऐसा होता है, तो हिंदुओं द्वारा किए गए बुरे कामों के लिए पूरे हिंदू समुदाय को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। उनकी पत्नी, सीता देवी, भी अपनी बात रखती हैं और सलमा बेगम के गाँव के प्रति योगदान और मदद को याद दिलाती हैं। वे दोनों स्पष्ट करते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता; आतंकवादी सिर्फ़ मानवता के दुश्मन होते हैं। वे गाँव वालों को समझाते हैं कि उन्हें आपस में नफ़रत फैलाने के बजाय ऐसे बुरे लोगों का मिलकर विरोध करना चाहिए। पंडित रामलाल और सीता देवी की बुद्धिमान और दृढ़ बातों का गाँव के लोगों पर गहरा असर होता है। उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है और भीड़ शांत हो जाती है। इस घटना से गाँव वालों को यह महत्वपूर्ण सबक मिलता है कि किसी एक व्यक्ति के कृत्य के लिए पूरे समुदाय को दोषी ठहराना अन्याय है और धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाना गलत है। यह कहानी सच्ची इंसानियत, समझदारी और मुश्किल समय में एक-दूसरे का साथ देने के महत्व को दर्शाती है।
हिजाब वाली लड़की
कहानी का विस्तृत सारांश यह कहानी आयशा नाम की एक युवा मुस्लिम छात्रा के बारे में है जो मुंबई के एक आधुनिक कॉलेज में हिजाब पहनकर आती है, लेकिन उसे अपने पहनावे के कारण सहपाठियों के उपहास और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। शुरुआत में आयशा इन टिप्पणियों को नज़रअंदाज़ करती है, लेकिन एक दिन कैंटीन में कुछ छात्रों द्वारा उसके हिजाब और उसकी बौद्धिक क्षमता को लेकर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी उसे बोलने पर मजबूर कर देती है। आयशा बड़े ही शांत और दृढ़ स्वर में उन छात्रों को चुनौती देती है। वह सवाल करती है कि क्या हिजाब पहनने से "न्यूरॉन्स" काम करना बंद कर देते हैं और क्या विज्ञान में ऐसा कोई प्रमाण है जो यह बताता हो कि कपड़ों का एक टुकड़ा सोचने की क्षमता को प्रभावित करता है। वह स्पष्ट करती है कि हिजाब उसकी आस्था का प्रतीक है और इसे पहनकर वह सुरक्षित और सहज महसूस करती है। आयशा के सवाल केवल उसके व्यक्तिगत अनुभव तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि वे समाज के सामने व्यापक प्रश्न उठाते हैं। वह पूछती है कि यदि एक महिला अपने चुने हुए परिधान में सहज महसूस करती है तो दूसरों को इसमें क्या समस्या होनी चाहिए। वह आज़ादी के सही अर्थ पर प्रकाश डालती है, जो न केवल अपनी पसंद को व्यक्त करने की स्वतंत्रता है, बल्कि दूसरों की पसंद का सम्मान करने की भी। वह इस बात पर जोर देती है कि लोगों को उनके कपड़ों के आधार पर नहीं, बल्कि उनके विचारों और गुणों के आधार पर आंका जाना चाहिए। आयशा के सवालों से कॉलेज के छात्र शर्मिंदा होते हैं और उसके प्रति उनका नज़रिया बदलता है। कुछ छात्र उससे माफ़ी भी माँगते हैं। आयशा का यह कार्य न केवल उसके आत्मविश्वास को दर्शाता है बल्कि यह भी साबित करता है कि अज्ञानता और पूर्वाग्रह को समझ और सम्मान से ही हराया जा सकता है। कहानी इस बात पर ज़ोर देती है कि आयशा एक मेधावी छात्रा थी और हिजाब उसकी बौद्धिक क्षमता या पहचान के आड़े कभी नहीं आया।
एक मुस्लिम गरीब लड़के की कहानी जो पढ़ना चाहता है
यह कहानी रहीम नाम के एक गरीब और मेहनती मुस्लिम लड़के की है, जिसके जीवन में कम उम्र में ही मुश्किलों का पहाड़ टूट पड़ता है। जब वह सिर्फ तीन साल का था, तभी उसके अब्बा का इंतकाल हो जाता है, और घर की सारी ज़िम्मेदारी उसकी अम्मी, सकीना, पर आ जाती है। सकीना दूसरों के घरों में मेड का काम करती है, लेकिन उसकी कमाई इतनी कम होती है कि दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से मिलती है, और रहीम को स्कूल भेजने का सपना अधूरा रह जाता है। इसके बावजूद, रहीम के अंदर पढ़ने की गहरी लगन है। उसकी आँखें ज्ञान की दुनिया को देखने का सपना देखती हैं और वह अपनी अम्मी को गरीबी और दूसरों के घरों में काम करने की मजबूरी से आज़ाद कराना चाहता है। अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए, रहीम छोटी उम्र में ही काम करना शुरू कर देता है। वह शहर की एक छोटी सी परचून की दुकान पर दिन भर ईमानदारी और लगन से काम करता है। शाम होते ही, रहीम अपनी थकान को दरकिनार करते हुए पास के 'शाम के मदरसे' में पढ़ने चला जाता है, जहाँ गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती है। मदरसे से लौटने के बाद भी वह अपनी अम्मी की मदद करता है, घर के कामों में हाथ बँटाता है। रविवार का दिन उनके लिए खास होता है, जब रहीम अपनी अम्मी से अपने बड़े-बड़े सपने साझा करता है – खूब पढ़कर बड़ा आदमी बनना और अम्मी को आराम भरी ज़िंदगी देना। कहानी इस बात पर भी जोर देती है कि कैसे रहीम अपनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अच्छी आदतों को बनाए रखता है। जहाँ उसके आस-पास के कई लड़के गरीबी से हार मानकर गलत रास्तों पर चले जाते हैं, वहीं रहीम न केवल खुद ईमानदार और नेक रहता है, बल्कि अपने दोस्तों और पड़ोस के लड़कों को भी पढ़ाई की अहमियत समझाता है और उन्हें सही रास्ता दिखाता है। वह उन्हें बताता है कि शिक्षा ही गरीबी से निकलने का एकमात्र ज़रिया है, न कि बुरे काम। यह कहानी मेहनत, लगन और नैतिक मूल्यों का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करती है, जो दर्शाती है कि दृढ़ इच्छाशक्ति और सही दिशा में प्रयास से कोई भी व्यक्ति अपनी मुश्किलों को पार कर सकता है।
बेघर: एक परिवार की अनकही पीड़ा
यह कहानी शम्सुद्दीन साहब और उनके परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनका पुश्तैनी घर, जो उनके जीवन का केंद्र था, को सरकारी बुलडोजर द्वारा बिना किसी चेतावनी के ढहा दिया जाता है। कहानी उनके दर्द, बेबसी और सदमे को बयां करती है। शम्सुद्दीन साहब और उनकी पत्नी, ज़ुबैदा खातून, अपने बच्चों और पोते-पोतियों के साथ, अचानक बेघर हो जाते हैं। कहानी में उनके परिवार के सदस्यों की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं को दिखाया गया है - बच्चों का डर और भ्रम, ज़ुबैदा खातून का दर्द, और शम्सुद्दीन साहब का भीतर का संघर्ष। कहानी में यह भी दर्शाया गया है कि कैसे यह घटना सिर्फ एक घर का नुकसान नहीं है, बल्कि उनके सपनों, सुरक्षा और पहचान का भी नुकसान है। यह कहानी उन अनगिनत मुस्लिम परिवारों की पीड़ा को उजागर करती है, जिन्हें अक्सर अन्याय और बेबसी का सामना करना पड़ता है, और उनकी उस भावना को व्यक्त करती है कि यह देश उनका भी उतना ही है, जितना किसी और का। कहानी में दर्द के साथ-साथ, फिर से खड़े होने और जीवन को फिर से शुरू करने की प्रेरणा भी है।
#Why bulldozer has only eye #Why only Muslims #No house to stay #Justice #No court rules followed #Where will Family move if no money
इमरान की टोपी
"इमरान की टोपी" कोई साधारण कहानी नहीं, बल्कि एक आवाज़ है — उस अज़ान की, जो अब चुप हो गई थी। उस इमरान की, जो पहचान से डर गया था। टोपी सिर्फ़ कपड़े का टुकड़ा नहीं — वह इतिहास है, परंपरा है, और आत्मसम्मान है। जब समाज किसी की टोपी को शक की निगाह से देखता है, तब वह केवल इमरान को नहीं, इंसानियत को अपमानित करता है। इस देश के नागरिकों से मेरा प्रश्न है: क्या इमरान की टोपी फिर से गर्व से पहनी जा सकती है? क्या हम अपनी सोच की दीवारें गिरा सकते हैं — ताकि टोपी, तिलक, पगड़ी, सब मिलकर एक देश की पहचान बन जाएं? हमारा देश तभी महान बन सकता है, जब हर इमरान अपने नाम को सिर उठाकर कह सके — और उसकी टोपी सवाल नहीं, शान बने।
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