हर जुमे की सुबह, फजर के वक़्त जब अज़ान की आवाज़ गली की दीवारों से टकरा कर लौटती थी,
वो बूढ़ा आदमी वुज़ू करता था।
बहुत धीमे से, जैसे पानी से वक़्त धो रहा हो।
उसका नाम किसी सरकारी फाइल में शायद जिंदा था,
पर मोहल्ले में सब उसे "अब्बा हज़रत" कहते थे।
कम बोलता था, पर उसकी आँखों में कई किताबें दबी रहती थीं।
फर्श पर बिछी सफेद जानमाज़ के बाईं तरफ़ एक लकड़ी की छोटी-सी पेटी रखी रहती थी।
उस पेटी में थे कुछ पुराने लिफ़ाफ़े,
और वो ख़त…
जो वो हर जुमे को, मदीना की तरफ़ लिखता था।
"या रसूल अल्लाह ﷺ..."
हर ख़त की पहली लाइन यही होती थी।
कभी वो अल्फ़ाज़ में अपने गुनाह कबूल करता,
कभी अपनी बीवी की बीमारी का ज़िक्र,
कभी अपने बेटे के लिए नौकरी की दुआ मांगता।
और कभी-कभी… बस खामोशी में एक काग़ज़ लपेट देता,
जैसे कह रहा हो —
“आप तो जानते हैं, कहने को अब कुछ बचा नहीं।”
वो ख़त कभी पोस्ट नहीं करता था।
बस तह करके उस पेटी में रख देता,
क़िब्ले की तरफ़ मुँह करके।
वो मानता था, मदीना सिर्फ़ जगह नहीं है — एक रास्ता है।
जो दिल से चलता है।
वक़्त बीतता गया।
बीवी चल बसी।
बेटा सऊदी चला गया, और वहीं रह गया।
अब्बा हज़रत अकेले हो गए।
सिर्फ़ वो ख़त साथ रह गए।
एक दिन, जब वो अब इस दुनिया से भी ख़ामोश हो गया,
तो उसकी पोती आयशा, जो दिल्ली से छुट्टियों में आई थी,
उस कमरे में दाख़िल हुई जहाँ अब सिर्फ़ धूल और तन्हाई रहती थी।
वो लकड़ी की पेटी खोली।
अंदर सौ से ज़्यादा लिफ़ाफ़े थे—सब पर एक ही नाम लिखा था।
"मदीना शरीफ़"
ना कोई पता, ना टिकट, ना मोहर।
बस मोहब्बत की स्याही से लिखा गया एक यकीन।
आयशा ने एक ख़त पढ़ा।
“या रसूल अल्लाह ﷺ,
आज शाम को मेरे पड़ोसी का बेटा शहीद हो गया।
उसने आख़िरी सांस लेते वक़्त सिर्फ़ आपका नाम लिया था।
बताइए, ऐसा ईमान कैसे पाते हैं लोग?”
एक और:
“आज मेरी बीवी ने कहा —
तुम्हारे सारे अल्फ़ाज़ मुझसे नहीं, मदीना से होते हैं।
और मैं चुप रहा।
काश उसे समझा पाता कि तुमसे मोहब्बत करना, मोहब्बत करना ही है।
फर्क बस इतना है कि एक मोहब्बत जवाब देती है, और एक बस सुनती है।”
आयशा पढ़ती चली गई।
हर पन्ना जैसे उसकी रूह के किसी दरवाज़े को खोल रहा था।
उसने जाना कि उसके दादा कोई मामूली बुज़ुर्ग नहीं थे।
वो तो वो थे,
जो बिना कहे भी कह जाते थे,
बिना बोले भी रुला देते थे।
एक ख़त में उन्होंने अपनी हिजरत की कहानी भी लिखी थी:
“सन 1947 में जब सरहदें बन रही थीं,
मेरा यकीन भी चाकू की धार पर रखा था।
हमने एक मुल्क छोड़ा, पर मदीना नहीं छोड़ा।
क्योंकि मदीना दिल में था।
और उस दिल की हिफ़ाज़त आपने की।”
आयशा ने वो सारे ख़त इकठ्ठा किए।
हर एक को पढ़ा,
और पहली बार उसने दुआ सिर्फ़ माँगने के लिए नहीं,
समझने के लिए मांगी।
अब हर जुमे को, उसी जानमाज़ पर, वही लकड़ी की पेटी रखी जाती है।
फर्क बस इतना है कि अब उसमें आयशा के ख़त होते हैं।
वो लिखती है:
“या रसूल अल्लाह ﷺ,
आज मैंने दफ़्तर में झूठ नहीं बोला।
मुझे डर लगा, पर फिर याद आया — आप अकेले नहीं छोड़ते।”
मदीना अब भी उतना ही दूर है,
पर उन ख़तों की दूरी कुछ कम हो गई है।
काग़ज़ अब भी वही है,
स्याही अब भी वही है।
बस लिखने वाले बदल गए हैं।
पर मोहब्बत नहीं।
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