हिजाब वाली लड़की
मुंबई के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में, जहाँ आधुनिकता और विविधता का संगम दिखता था, आयशा भी पढ़ने आती थी। आयशा हमेशा हिजाब पहनती थी, जो उसके चेहरे को शालीनता से घेरे रखता था। कॉलेज के पहले दिन से ही, कुछ छात्रों की नज़रों में वह एक कौतूहल का विषय बन गई। धीरे-धीरे, यह कौतूहल उपहास में बदलने लगा।
कुछ लड़के और लड़कियाँ आयशा के हिजाब को लेकर फब्तियाँ कसते थे। कभी कोई कहता, "गर्मी नहीं लगती इसमें?", तो कभी कोई पूछता, "ये पहनकर दिमाग काम करता है क्या?" आयशा अक्सर इन बातों को अनसुना कर देती थी, लेकिन कभी-कभी उसे बहुत दुख होता था।
एक दिन, कॉलेज कैंटीन में कुछ छात्र घेरा बनाकर बैठे थे और आयशा के बारे में बातें कर रहे थे। उनमें से एक लड़का हँसते हुए बोला, "अरे यार, ये हिजाब वाली लड़कियाँ... लगता है इनके दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं होगा। हमेशा सब ढका हुआ जो रहता है!"
आयशा उस समय पास से ही गुजर रही थी। उसने लड़के की बात सुनी और वहीं रुक गई। शांत लेकिन दृढ़ स्वर में उसने कहा, "माफ़ करना, क्या मैं कुछ कह सकती हूँ?"
लड़के और लड़कियाँ चौंक गए। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि आयशा पलटकर जवाब देगी।
आयशा ने आगे कहा, "आपने कहा कि हिजाब पहनने से दिमाग काम नहीं करता। क्या आप मानते हैं कि हमारे दिमाग की कोशिकाएँ, जिन्हें न्यूरॉन्स कहते हैं, हिजाब पहनने से काम करना बंद कर देती हैं? क्या विज्ञान में ऐसा कोई प्रमाण है कि कपड़े का एक टुकड़ा सोचने और समझने की क्षमता को प्रभावित करता है?"
कमरे में सन्नाटा छा गया। किसी के पास आयशा के सवाल का जवाब नहीं था।
आयशा ने अपनी बात जारी रखी, "असल में, हिजाब मेरी आस्था का हिस्सा है, और इसे पहनकर मैं सुरक्षित और सहज महसूस करती हूँ। अगर एक महिला किसी परिधान में अपनी पहचान और आराम पाती है, तो इसमें किसी और को क्या समस्या होनी चाहिए? क्या आज़ादी का मतलब सिर्फ़ वही कपड़े पहनना है जो आप चाहते हैं, या इसका मतलब यह भी है कि दूसरे क्या पहनना चाहते हैं, इसका सम्मान करना?"
उसने चारों ओर देखा और फिर थोड़ी भावुक होकर कहा, "दुनिया भर में कितनी महिलाएँ अपनी पसंद के कपड़े पहनती हैं, अपनी आस्था का पालन करती हैं। क्या हर किसी को इसलिए नीचा दिखाया जाना चाहिए क्योंकि उनकी पसंद आपसे अलग है? क्या हम एक ऐसे समाज में रहना चाहते हैं जहाँ लोगों को सिर्फ़ उनके कपड़ों के आधार पर जज किया जाए, न कि उनके विचारों, उनके गुणों के आधार पर?"
आयशा के सवालों ने वहाँ बैठे हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया। जिन लड़कों ने उसका मज़ाक उड़ाया था, वे भी शर्मिंदा दिख रहे थे।
उस दिन के बाद, कॉलेज में आयशा के प्रति लोगों का नज़रिया थोड़ा बदला हुआ महसूस हुआ। कुछ छात्रों ने उससे माफ़ी भी माँगी। आयशा ने हमेशा सबको माफ कर दिया क्योंकि वह जानती थी कि अज्ञानता और पूर्वाग्रह को प्यार और समझ से ही हराया जा सकता है।
आयशा ने साबित कर दिया कि हिजाब उसकी शिक्षा या उसकी सोच के रास्ते में कभी बाधा नहीं बन सकता। वह एक मेधावी छात्रा थी और हमेशा अपनी बातों को स्पष्टता और आत्मविश्वास से रखती थी। उसने दुनिया से कुछ सवाल पूछे थे: क्या किसी की आस्था और पहनावे के आधार पर उसे नीचा दिखाना सही है? क्या किसी महिला की पसंद और आराम का सम्मान करना ज़रूरी नहीं है? और क्या हम सच में एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ बाहरी दिखावे के आधार पर लोगों का मूल्यांकन हो?
दुनिया के लिए सवाल:
- क्या किसी व्यक्ति की धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान को उसके ज्ञान और क्षमता से जोड़ना न्यायसंगत है?
- क्या किसी महिला को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए, भले ही वह पसंद पारंपरिक या धार्मिक हो?
- क्या सहजता और आत्मविश्वास किसी भी व्यक्ति के लिए ज़रूरी नहीं हैं, और अगर कोई परिधान इसमें सहायक हो तो क्या आपत्ति होनी चाहिए?
- क्या हम एक ऐसे समावेशी समाज का निर्माण नहीं करना चाहते जहाँ हर किसी को बिना किसी डर या उपहास के अपनी पहचान बनाए रखने का अधिकार हो?
- क्या हमारी सोच इतनी संकीर्ण होनी चाहिए कि हम बाहरी आवरण से परे किसी व्यक्ति के गुणों और विचारों को न देख सकें?
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