कहानी का शीर्षक: "मिट्टी के साथी"
दृश्य 1 – ठाणे के एक छोटे से कस्बे की सुबह
(कैमरा गीली ज़मीन पर घूमता है। बारिश अभी-अभी रुकी है। सड़क पर कीचड़, पानी की हल्की परत और उसके बीच रेंगते हुए कुछ मिट्टी के कीड़े — यानी केंचुए। कुछ मरे हुए, कुछ ज़िंदा, और कुछ पाँवों तले कुचलने के कगार पर।)
(एक सादा मगर तेज नज़रों वाला नौजवान सामने आता है — फज़ल एसाफ। किसान का बेटा। सिर पर गांधी टोपी, कंधे पर कपड़े की झोली, आँखों में गांव की मिट्टी की समझ और दिल में कुछ बेचैनी।)
फज़ल (आहिस्ता-सा):
"ज़मीन पर जीवन रेंग रहा है... और लोग हैं कि सिर उठाए, मोबाइल में घुसे हुए आगे बढ़े जा रहे हैं... इन्हें क्या पता कि इन्हीं रेंगते कीड़ों से हमारी रोटियाँ जुड़ी हैं।"
(वो झुककर एक केंचुए को उठा लेता है और उसे धीरे से गीली मिट्टी के कोने में रख देता है।)
दृश्य 2 – तीन राहगीर आते हैं
- अदिति मैडम – कॉर्पोरेट में काम करने वाली तेज़-तर्रार महिला, हाथ में लैपटॉप बैग
- शास्त्री जी – बुज़ुर्ग, धोती-कुर्ता पहने, छड़ी के सहारे चलते हुए
- आर्यन – नन्हा लड़का, स्कूल बैग लिए, मम्मी का हाथ थामे
दृश्य 3 – टकराव और बातचीत
(अदिति मैडम चलती-चलती एक केंचुए पर पाँव रख देती हैं। केंचुआ मसल जाता है। तभी फज़ल आवाज़ लगाता है।)
फज़ल (तेज़ आवाज़ में):
"मैडम! ज़रा रुकिए..."
(वो चौंक कर रुकती हैं।)
अदिति:
"हाँ? क्या हुआ?"
फज़ल:
"आपके क़दमों तले एक ज़िंदगी चली गई... आपने देखा नहीं?"
(वो नीचे देखती हैं – कुचला हुआ केंचुआ। एक पल के लिए झिझकती हैं।)
अदिति (थोड़ा खिन्न होकर):
"ओह... मुझे लगा कीड़ा है कोई। पर क्या करें? रास्ता तो देखना पड़ता है।"
फज़ल (मुस्कुराकर):
"जी, रास्ता ज़रूर देखिए। लेकिन ज़रा ज़मीन भी देख लीजिए।
ये 'कीड़ा' नहीं है... किसान का दोस्त है।
ये मिट्टी को सांस देता है।
जहाँ ये हैं, वहाँ ज़मीन ज़िंदा है।
और जहाँ ज़मीन ज़िंदा है, वहीं से खाना आता है।"
(अदिति झिझककर सिर हिलाती हैं। फज़ल आगे बढ़ जाता है।)
दृश्य 4 – शास्त्री जी की अनुभवी आंखें
शास्त्री जी (मुस्कुराकर):
"बेटा, तूने दिल की बात कह दी।
हमारे ज़माने में खेत में केंचुआ दिखे तो हम समझते – फसल अच्छी होगी।
अब तो लोगों को मिट्टी से नफरत हो गई है।"
फज़ल (सम्मान से):
"बिलकुल दादा जी।
आजकल लोग मिट्टी को गंदगी समझते हैं...
मगर यही गंदगी उनकी थाली में गेहूँ बनकर जाती है।
और ये केंचुए? ये किसान के सच्चे साथी हैं।
बिना कुछ माँगे, पूरी ज़मीन जोत देते हैं।"
शास्त्री जी:
"और बिना तनख्वाह के मेहनत करते हैं।
काश, लोग इतना समझ पाते जितना तू समझा रहा है।"
दृश्य 5 – आर्यन का मासूम सवाल
(एक छोटा लड़का – आर्यन – माँ का हाथ थामे आता है। अचानक वो रुक जाता है। एक केंचुआ उसके सामने रेंग रहा है।)
आर्यन:
"मम्मा! मम्मा! देखो साप जैसा कुछ चल रहा है!"
(फज़ल पास आता है और झुक कर बोलता है।)
फज़ल:
"नहीं बेटा, ये साँप नहीं है। ये केंचुआ है। इसका नाम है 'Earthworm'।"
आर्यन:
"ये करता क्या है?"
फज़ल:
"ये मिट्टी को अंदर से जोतता है।
जहाँ ये चलता है, वहाँ से हवा जाती है, पानी समाता है, और बीज उगते हैं।
तू जो सब्ज़ी खाता है ना, वो कहीं न कहीं इसके चलते उगी है।"
आर्यन (आँखें चमकाते हुए):
"तो ये मेरा भी दोस्त है?"
फज़ल (हँसते हुए):
"हाँ! तेरा भी और मेरा भी। और हर उस इंसान का दोस्त जो खाना खाता है।"
आर्यन की माँ:
"धन्यवाद भाई साहब। आज एक छोटा मगर बड़ा सबक मिला।"
दृश्य 6 – फुटपाथ पर एक छोटी सभा
(अब अदिति, शास्त्री जी और आर्यन तीनों खड़े हैं। फज़ल के चारों ओर। फज़ल उनकी ओर देखता है – जैसे किसानों का प्रतिनिधि हो।)
फज़ल:
"आप सब यहाँ शहर में रहते हैं, और मैं गांव से हूँ।
मगर जो धागा हम सबको जोड़ता है, वो मिट्टी है।
यहाँ लोग केंचुए को कीड़ा समझकर कुचल देते हैं...
मगर गांव में किसान उसे देख कर सुकून लेता है।
क्योंकि उसे पता है कि यही ज़मीन को ज़िंदा रखेगा।"
अदिति:
"पर शहरों में तो ऐसा ज्ञान कहाँ... हम तो बस दौड़ में लगे हैं।"
फज़ल:
"ज्ञान नहीं तो संवेदना ही सही।
कभी-कभी बस पाँव उठाकर देखना काफ़ी होता है।
अगर हम एक छोटा जीव बचा सकते हैं, तो क्यों ना बचाएं?"
शास्त्री जी (भावुक होकर):
"बेटा, तूने सही कहा।
जिस समाज को ज़मीन से रिश्ता तोड़ देना आता है,
वो रिश्तों की अहमियत भी भूल जाता है।"
दृश्य 7 – सिनेमाई सीन
(फज़ल अपने झोले से थोड़ी मिट्टी उठाता है, उस मिट्टी में एक केंचुआ रेंग रहा है। सब उसे ध्यान से देखते हैं।)
फज़ल (धीरे-धीरे, भावनात्मक स्वर में):
"देखिए...
ये मिट्टी नहीं, जीवन है।
इसमें मेहनत भी है, उम्मीद भी।
और ये छोटा केंचुआ?
ये हमारा अनदेखा, अनकहा साथी है।
जिस दिन ये कम हुआ, उस दिन रोटी भी महंगी हो जाएगी।
मिट्टी भी बंजर और दिल भी।"
(आर्यन नीचे देखते हुए चलता है, हर केंचुए को ध्यान से देखता है।)
आर्यन:
"अब मैं किसी को कुचलूँगा नहीं।
वो भी तो मेरी तरह स्कूल जा रहा होगा… मिट्टी की क्लास में!"
(सब हँस पड़ते हैं। फज़ल आँखों में चमक लेकर दूर चलता जाता है।)
दृश्य 8 – अंतिम मोनोलॉग
(कैमरा धीरे-धीरे ऊपर उठता है। फुटपाथ पर लोग अब ध्यान से चल रहे हैं। कुछ लोग केंचुए को देख मुस्कुरा रहे हैं।)
फज़ल (आवाज़ में गहराई):
"मैं एक किसान का बेटा हूँ।
मुझे पता है ज़िंदगी कहाँ पलती है – ज़मीन की कोख में।
ये शहर चमकता है, मगर इसकी नींव वही मिट्टी है जो गांव में सड़कों से दूर सांस लेती है।
अगर हम उसे मारते रहेंगे, तो हम भी धीरे-धीरे मरेंगे...
बिना आवाज़ के... बिना मिट्टी के..."
(बैकग्राउंड में कविता जैसे शब्द)
"जो रेंगता है ज़मीन पर,
वो थामे है आसमान को।
न कुचलिए उसे,
क्योंकि वो पालता है हमें… चुपचाप।"
समाप्त
संदेश:
"ज़मीन पर चलिए, मगर ज़मीन को समझकर चलिए।
क्योंकि वहीं से जीवन उगता है।"
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