बेघर: एक परिवार की अनकही पीड़ा
शम्सुद्दीन साहब की आँखों में हमेशा एक चमक रहती थी, उनके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान। 70 साल की उम्र में भी, उनका घर, जो गली के नुक्कड़ पर खड़ा था, उनकी पहचान था। यह सिर्फ ईंट और सीमेंट का ढाँचा नहीं था, बल्कि चार पीढ़ियों की कहानियों, त्योहारों की रौनक और हर रोज़ की दुआओं का ठिकाना था। उनकी पत्नी, ज़ुबैदा खातून, ने उसी आँगन में अपने बच्चों को खेलते देखा था, और अब उनके पोते-पोतियाँ भी वहीं पल रहे थे।
एक दिन, अचानक शहर में एक अजीब सी खामोशी छा गई। फिर, दूर से आती भारी मशीनों की आवाज़ ने उस खामोशी को तोड़ दिया। सरकारी अधिकारी और पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी उनके मोहल्ले में घुस आई। "अतिक्रमण हटाना है!" – यह घोषणा एक ठंडी तलवार की तरह उनके कानों में पड़ी।
शम्सुद्दीन साहब ने अपने कागज़ात निकाले, जो उन्होंने दशकों से सहेज कर रखे थे। "जनाब, यह हमारी पुश्तैनी ज़मीन है, हमारे पास सारे दस्तावेज़ हैं," उन्होंने एक अधिकारी से कहा। लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गई। "यह सरकारी ज़मीन है, खाली करो!" एक पुलिसकर्मी ने कड़क आवाज़ में कहा।
ज़ुबैदा खातून ने अपने छोटे पोते, अली को सीने से लगा लिया। अली, जो अभी-अभी अपनी अम्मी के हाथ से रोटी खा रहा था, अपनी टूटी हुई मिट्टी की गुल्लक को देख रहा था, जिसमें उसने ईद के लिए पैसे जमा किए थे। उनकी बहू, आयशा, जल्दी-जल्दी कुछ कपड़े और बच्चों की किताबें समेटने लगी, लेकिन समय बहुत कम था।
बुलडोजर की पहली चोट ने घर की बाहरी दीवार को हिला दिया। एक तेज़ धूल का गुबार उठा, और शम्सुद्दीन साहब के दिल में एक गहरा दर्द उठा। उन्हें लगा, जैसे उनके सीने पर वार हुआ हो। उनकी बेटी, फातिमा, जो कुछ ही महीने पहले शादी करके अपने ससुराल से आई थी, अपनी पुरानी तस्वीरों के एल्बम को बचाने के लिए अंदर भागी, लेकिन उसे बाहर खींच लिया गया।
"अब्बा जान! हमारा सब कुछ जा रहा है!" आमिर, उनके बड़े बेटे ने बेबसी से कहा। वह अपनी आँखों में आँसू लिए, अपने बच्चों को सुरक्षित जगह ले जाने की कोशिश कर रहा था। शम्सुद्दीन साहब ने देखा कि उनके पड़ोसी भी मदद के लिए आगे नहीं आ पा रहे थे, उनकी अपनी आँखों में भी वही डर और बेबसी थी।
कुछ ही घंटों में, उनका घर, जो कभी उनके परिवार की शान था, अब एक पहचानहीन खंडहर बन गया। दीवारों पर टंगी आयतें, रसोई से आती खाने की खुशबू, आँगन में गूंजती बच्चों की किलकारियाँ – सब कुछ मलबे के नीचे दब गया था। वे सड़क पर खड़े थे, उनके पास बस वो थोड़े से सामान थे जो वे आखिरी मिनट में बचा पाए थे।
रात हुई, और परिवार ने एक पास की मस्जिद के बरामदे में शरण ली। अली अपनी दादी की गोद में सिकुड़ा हुआ था, और रह-रहकर पूछ रहा था, "दादी, क्या हम अब कभी अपने घर वापस नहीं जाएंगे?" ज़ुबैदा खातून ने उसे कसकर गले लगा लिया, उनकी आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। शम्सुद्दीन साहब ने आसमान की ओर देखा, जहाँ तारे चमक रहे थे, लेकिन उनके दिल में एक गहरा अँधेरा छा गया था।
उन्हें अपने पिता की बातें याद आईं, जिन्होंने कहा था, "बेटा, घर सिर्फ चार दीवारों से नहीं बनता, वह अपनों से बनता है।" लेकिन आज, उन्हें लगा कि घर का ढहना सिर्फ दीवारों का ढहना नहीं था, बल्कि उनके सुरक्षित भविष्य, उनकी पहचान और उनके विश्वास का भी ढहना था। यह दर्द सिर्फ उनके परिवार का नहीं था, यह उन अनगिनत मुस्लिम परिवारों का दर्द था, जिन्हें अक्सर ऐसी ही बेबसी और अन्याय का सामना करना पड़ता है।
शम्सुद्दीन साहब को पता था कि उन्हें फिर से शुरुआत करनी होगी, लेकिन उनके दिल में उस दिन की टीस हमेशा रहेगी – उस दिन की, जब उनका आशियाना, उनकी यादें, और उनका विश्वास, सब कुछ धूल में मिल गया था।
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