वह बूढ़ा आदमी जब पहली बार मेरी नज़र में आया, तो मैं उसे पहचान न सका। भीड़ के बीच वह बैठा था — चुपचाप, स्थिर, जैसे समय भी उसके पास ठहर गया हो। सफेद कुरता, झुकी कमर, और कांपते हाथों में एक पुरानी, बदरंग हो चुकी टोपी।
मुझे उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा। मैंने पास जाकर पूछा,
“चाचा, आप यहाँ ऐसे क्यों बैठे हैं?”
उसने मेरी तरफ देखा — आँखें धुंधली थीं, पर उनमें कुछ ऐसा था जिसे केवल अनुभव पढ़ सकता था।
“मैं इमरान हूँ… कभी इस मोहल्ले का मुज़्जिन था।”
मैं ठिठक गया। इमरान चाचा? वही जो हर रमज़ान मस्जिद की छत से अज़ान देते थे, जिनकी आवाज़ से मोहल्ले की सुबहें शुरू होती थीं? वही जिनकी ज़ुबान से दुआएं मोमबत्ती की तरह दिलों को पिघला देती थीं?
मैंने देखा, उनके पास कुछ नहीं था — न ज़मीन, न सामान, न सम्मान। बस वह पुरानी टोपी, जिसे वह हथेलियों में थामे थे, जैसे वही उनकी पहचान हो।
“क्या हुआ चाचा?” मैं पूछ बैठा।
वह बोले —
“पहले मेरा नाम सिर्फ़ इमरान था… अब लोग टोपी देखकर सवाल करते हैं — ‘कहाँ से आए हो?’”
मैं चुप रह गया।
उन्होंने बात आगे बढ़ाई —
“एक दिन बस में बैठा था। टोपी पहने हुए। दो लोग आपस में बात कर रहे थे — ‘इनकी वजह से ही देश बर्बाद हो रहा है।’
मैंने कुछ नहीं कहा। चुपचाप उतर गया। टोपी उतार दी। तब से इस टोपी को पहनने की हिम्मत नहीं हुई।”
मैंने उनके हाथ की तरफ देखा। वह टोपी कांपते हाथों में अब भी थमी हुई थी — पर इस बार वो सिर्फ कपड़ा नहीं थी, वह एक पूरा इतिहास थी।
एक शाम मैंने उन्हें अपने घर बुलाया। चाय पर बात शुरू हुई। मैंने कहा —
“चाचा, क्या आपको लगता है टोपी पहनने से इज़्ज़त घटती है?”
वो बोले —
“बेटा, टोपी से इज़्ज़त नहीं घटती, पर जब टोपी सवाल बन जाए — तब दिल डरने लगता है।”
मैंने सोचा, यह डर तो सिर्फ़ इमरान का नहीं — यह हर उस व्यक्ति का डर है, जो अपनी पहचान को रोज़-रोज़ समेटता है, क्योंकि वह पहचान अब सवाल बन गई है।
अगले हफ्ते हमारे मोहल्ले में एक स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम था। मैंने आयोजन समिति से कहा —
“इस बार एक विशेष अतिथि होंगे — इमरान चाचा।”
वो सब चौंके। “टोपी वाले इमरान?”
मैंने दृढ़ता से कहा — “हाँ, वही। और वो अपने कुरआनी क़व्वाल से उद्घाटन करेंगे।”
कुछ ने कहा, “क्या ज़रूरत है?”
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया — “ज़रूरत इसलिए है कि हमें अपनी दीवारें गिरानी हैं।”
कार्यक्रम के दिन इमरान चाचा आये — उन्होंने कई सालों बाद पहली बार वह टोपी पहनी थी। हिचकिचाहट साफ़ थी, पर उनकी आँखों में हल्की सी चमक थी — जैसे कहीं से खोई हुई उम्मीद लौट आई हो।
स्टेज पर जब उन्होंने “इक़राअ बिस्मि रब्बिकल लज़ी खलक” की तिलावत की, तो वातावरण में एक ऐसी शांति छा गई, जिसे शब्दों में नहीं, केवल आत्मा में महसूस किया जा सकता था।
उनकी आवाज़ अब भी वैसी ही थी — धीमी, लेकिन दिल के तारों को छूने वाली।
कार्यक्रम के बाद, भीड़ में एक वृद्ध हिन्दू सज्जन ने उनके पास आकर हाथ जोड़े और कहा —
“चाचा, आपने फिर से मेरी माँ की याद दिला दी… वो हर सुबह आपकी अज़ान पर पूजा शुरू करती थीं।”
इमरान चाचा की आँखों में आँसू थे — यह आँसू हार के नहीं थे, यह जीत की नमी थी।
उस रात वह टोपी उनके सिर पर थी — और मोहल्ले की हवा में फिर से वह सुगंध थी, जिसे पहचान कहते हैं।
संदेश
"इमरान की टोपी" कोई साधारण कहानी नहीं, बल्कि एक आवाज़ है — उस अज़ान की, जो अब चुप हो गई थी। उस इमरान की, जो पहचान से डर गया था।
टोपी सिर्फ़ कपड़े का टुकड़ा नहीं — वह इतिहास है, परंपरा है, और आत्मसम्मान है। जब समाज किसी की टोपी को शक की निगाह से देखता है, तब वह केवल इमरान को नहीं, इंसानियत को अपमानित करता है।
इस देश के नागरिकों से मेरा प्रश्न है:
क्या इमरान की टोपी फिर से गर्व से पहनी जा सकती है?
क्या हम अपनी सोच की दीवारें गिरा सकते हैं — ताकि टोपी, तिलक, पगड़ी, सब मिलकर एक देश की पहचान बन जाएं?
हमारा देश तभी महान बन सकता है, जब हर इमरान अपने नाम को सिर उठाकर कह सके — और उसकी टोपी सवाल नहीं, शान बने।
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