जयदेवः (गीतगोविन्दरचयिता)
जयदेवः पद्मावतीचारणचक्रवर्ती इति वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्माइति च गीतगोविन्दे कथयामास ।गीतगोविंदकाव्यस्य
संवेदनशीलता
” संवेदनशीलता यानि,दूसरों के दुःख-दर्द को समझना, अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना,उसमें शरीक होना। यह ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।
संस्कृतभाषायाः वैशिष्ट्यम्
राष्ट्रस्य परमोन्नतस्थानस्य प्राप्त्यर्थम् उत्तमं साधनं भवति संस्कृतम् । यदा यदा राष्ट्रस्य पुनरुद्धरणप्रक्रिया आसीत् तदा तदा यस्य कस्यापि संस्कृतज्ञस्य दायः तत्र लीनः स्यात् यथा चन्द्रगुप्तकाले चाणक्यस्य । राष्ट्रं सहजम् इति कारणेन राष्ट्रनिर्माणम् इति प्रयोगः असाधुः भवति । राष्ट्रं स्वसंस्कृतिद्वारा, संस्कृतिः स्वाभाषाद्वारा एव जीवति इत्यतः राष्ट्रोज्जीवनाय संस्कृतोज्जीवनं प्रथमं प्रधानं सोपानम् । पूर्वं भारतं जगद्गुरुः आसीत् ।
मातृ-शक्तियों शक्तियों का समाज में योगदान
एक दंपत्ति की वार्ता जो हम सभी के जीवन से संबंधित है ।इन दोनों के बीच कि आपसी समझ बूझ किस प्रकार एक दूसरे को इज्जत प्रदान करती है, यह दर्शनीय है। दोनों ही अपनी भूमिकाओं में श्रेष्ठ हैं और एक दूसरे के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। बहुत ही सुंदर वर्णन जहां कहीं भी दंभ का दर्शन नहीं होता। यहाँ स्वैच्छिक मर्यादा में बंधी स्त्री मीठी सी चेतावनी भी प्रदान करती है।
प्रतिकूल धाराएं और जीवन
साधारणतया हम अपने परिवार की छत्रछाया में रहते हैं। जहां हमारे माता-पिता, हमारे भाई बहन हमें हर तरह से आलंबन देते हैं। मां हमारे स्वास्थ्य का प्रेम पूर्वक ख्याल रखती है।
व्यक्तित्व और योग्यता
मुकेश जी बहुत ही मिलनसार, विनम्र और सहयोगी प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं और हमेशा सकारात्मक मुस्कान उनके चेहरे पर दिखाई देती है जो इस बात का प्रमाण है कि हमारी जिंदगी में कितनी भी मुसीबतें क्यों ना आए हमें हंसकर उन से बाहर निकलना है ।
कथानक
पूजनीय दिव्या बरामदे में बैठी अपनी सास गिरिबाला से स्वेटर बुनना सीख रही थी ।एक महीने पहले ही गिरिबाला अपने पति दामोदर के साथ गांव से शहर अपने इकलौते बेटे के पास इलाज करवाने आई थी। पुत्र प्रशासनिक अफसर था ,बड़े से सरकारी आवास में रहता था। चारों तरफ बगीचे के लिए अच्छी खासी जमीन थी। दिव्या ने उसमें माली की मदद से सब्जियां उगाने की कोशिश की थी लेकिन परिणाम से संतुष्ट नहीं थी। दिव्या ने देखा ससुर मिट्टी हाथ में लेकर सूंघ रहे थे, फिर झुककर मिट्टी पर हाथ फेरते हुए कुछ बड़बड़ाने लगे ।उसने आश्चर्य से सास की तरफ देखते हुए कहा ,"पिताजी क्या कर रहे हैं ?" सास हंसते हुए बोली ,"किसान हैं मिट्टी का अवलोकन कर रहे हैं ।कुछ तो कमी है जो सब्जियां बहुत अच्छी नहीं आई।" दिव्या की उत्सुकता शांत नहीं हुई थी," लेकिन वे कुछ बड़बड़ा रहे हैं, कोई मंत्र फूंक रहे हैं क्या ?" गिरीबाला धीरे से बोली ," कुछ नहीं तू नहीं समझेगी।" गिरीबाला को लगता था दिव्या बड़े अफसर की बेटी , शहर में पली-बढ़ी ,कॉन्वेंट में पढ़ी लड़की, उनके तौर-तरीके कभी नहीं समझ सकती ।वह अलग बात थी दिव्या सीखने और जानने की बहुत कोशिश करती थी ।हर बात को लेकर उसके मन में जिज्ञासा रहती थी। गांव में जब भी आती कुछ स्थितियों में परेशानी होती लेकिन जाहिर नहीं होने देती ।दिव्या विनम्रता से बोली," मां बताओ तो शायद समझ आ जाए। गिरिबाला असहजता से बोली ,"तेरे ससुर को लगता है माटी स्वयं बता देती है उसे क्या तकलीफ है ।वे बात करते हैं उससे ।" दिव्या आश्चर्य से बोली ,"क्या ?" गिरीबाला पति को प्रेम से देखते हुए बोली," हां किसान धरती को मां मानता है और यही विश्वास उसे साल दर साल फसल उगाने को प्रेरित करता है ।धरती भी बीजों को अपने भीतर पोषित करती है जब तक अंकुर नहीं फूटते हैं ।यही विश्वास और लगन के कारण मानवता को अन्न प्राप्त होता है ।"फिर दिव्या की तरफ देखते हुए बोली ,"तुम्हें यह सब बातें अजीब लग रही होंगी ।" दिव्या अपनी सास का हाथ अपने हाथ में लेते हुए भावुक स्वर में बोली," नहीं मां अजीब क्यों लगेगा, मेरे लिए खेती-बाड़ी एक मैकेनिकल कार्य था ।आज आपकी बातें सुनकर लगा आपके लिए कितना भावपूर्ण और पूजनीय है।" _____________________ *वेदू* उस वक्त मेरी उम्र 46 की रही होगी । बच्चे बड़े हो चुके थे । पता नहीँ क्यूँ मन में तीव्र इच्छा हुई फिर से किसी बच्चे को गोद में खिलाने की । या यूँ कहिये माँ बनने की। हमारे सामने वाले घर में एक काबुली परिवार रहता था । उनके यहां चार लड़कियों के बाद बेटा पैदा हुआ था । बड़ी लड़की की तो शादी भी हो चुकी थी । वो जर्मनी में रहती थी । बाकी तीन लड़कियां सील्वीना , अलवीरा और आकांक्षा यहीँ रहती थीं । देखने में सारा परिवार बहुत सुँदर था । नवजात बेटे को देखने भी गई थी मैं । उसका नाम वेद था । मैं उसे वेदू कहती थी । पता नहीँ उस बच्चे से कैसा लगाव था मुझे कि बाहर बाल्कनी में मैं जब भी उसे देखती , मुझे बहुत प्यार आता था उसपर । अक्सर उसकी मम्मी उसे कपड़ा बिछा कर बाल्कनी में बिठा देती और घर के कामों में बिज़ी हो जाती। वो अब थोड़ा बड़ा हो गया था लगभग एक साल का । मुझे जब भी देखता तो अपनी मम्मी को आवाज़ दे कर कहता ' मम्मा ' दीदी ' । उसकी मम्मी मुझे दीदी कह कर बुलाती थी , इस लिये उसने भी मुझे दीदी कह कर पुकारना शुरू कर दिया । सुबह उठते ही उसकी बहनें उसे हमारे यहां ले आतीं । मेरे यहां पर ही वो नहाता, दूध पीता और खेलता रहता था । हमारा पूरा परिवार उसे बहुत प्यार करता था lउसके दूसरे जन्मदिन पर हमने उसे शूज़ ले कर दिये थे । उसकी मम्मी बता रहीं थी "दीदी , सारी रात उसने शूज़ उतारने नहीँ दिये , कहता था , मेरी दीदी ने ले कर दिये हैँ , मैं नहीँ उतारूंगा "। उसे गोद में ले कर उसे नहला कर , उसे खिला कर अजीब सी तृप्ति मिलती थी मुझे । डेढ़ साल तक उसका बहुत आना जाना रहा । हम लोग इकठ्ठे जब भी बाहर जाते उसे साथ ले जाते थे । रात को उसके पापा आकर उसे ले जाते थे । फिर हमने अपनी रिहायश फरीदाबाद में शिफ्ट कर ली । उस कॉलोनी में हमारा आना जाना छूट गया । शुरू शुरू में एक दो बार उनका परिवार मिलने आया था । अब तो वो 15 साल का हो गया होगा । पता नहीँ उसे अपनी दीदी याद है या नहीँ । मगर मैं आज़ भी बीते दिनों को बहुत याद करती हूँ । यहां आकर मैंने बिल्ली पालना शुरू कर दिया था 'बुलबुल ' जिसका जिक्र मैंने अपनी कहानी में भी किया था । उपरोक्त दोनों कथानक ही अंत्यंत हृदयस्पर्शी एवं अंतर्मन को भावभीनित करने वाले हैं। अतः समाज इनसे एक विशेष सीख ले सकता है।