उद्धव-कृष्ण संवाद
उद्धव ने कृष्ण से पूछा, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया! लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं ? उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है! एक स्त्री का शील क्या बचा ? आपने क्या बचाया ? क्या यही धर्म है ?" ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं! उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए। भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले- "प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है। उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं। यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।" उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा। जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार? चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की! और वह यह- उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए! क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं! इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी! इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
उद्धव-कृष्ण संवाद :2
अपने भाई के आदेश पर जब दुःशासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही! तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा! उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुःशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया! जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर- 'हरि, हरि, अभयम् कृष्णा, अभयम्'- की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला। जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ ?" उद्धव बोले- "कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई! क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?" कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा- "इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा ? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे ?" कृष्ण मुस्कुराए- "उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ। मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ। मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ। यही ईश्वर का धर्म है।" "वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?" हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे ? आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें ? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें ?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा! तब कृष्ण बोले- "उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।" जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे ? तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे। जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! ।। कृष्णम् वन्दे जगतगुरूम् ।? || जय श्री कृष्णा||
गीत
वो ब्रज बिहारी कृष्ण मुरारी मन मेरे म्ह बसग्या। उस गिरधारी की भक्ति के म्हा मन मेरा फंसग्या।। कण कण म्ह वास उसका के तेरे म्ह के मेरे म्ह। एक उसका नाम साचा इस दुनिया के डेरे म्ह। वो हे उभारै भक्तां नै जो फंसे होनी के फेरे म्ह। मन के अँधेरे म्ह उसकी भक्ति का दिवा चसग्या।। गोकुल के म्हा पला वो वासुदेव देवकी कै जण कै। माखन चुराया गोपी सताई यशोदा का लाल बण कै। गऊ चराई बंसी बजाई रहा वो कृष्ण सदा तण कै। कालिये के फण कै ऊपर नाच्या जो लाखां नै डसग्या।। कंश, पुतना, शिशुपाल मार धरती का बोझ घटाया। कुरुक्षेत्र के म्हा उस कृष्ण गीता का ज्ञान सुनाया। बन सारथी रण कै म्हा उस अर्जुन का मान बढ़ाया। नरसी का भात भराया ओड़े रपियाँ का मींह बरसग्या।। दादा जगन्नाथ बी उस मुरली मनोहर नै रटै जावैं सं। गुरु रणबीर सिंह बी आठों पहर उसके गुण गावैं सं। सुलक्षणा भक्ति कै बस म्ह हो कृष्ण दौड़े आवैं सं। वो मोक्ष पावैं सं जिनका मन भक्ति म्ह धँसग्या।।
कृष्ण
ऋषियों ने यह कहा कि अन्यान्य अवतार उस भगवान के अंश और फलस्वरूप हैं लेकिन श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं। (श्रीमद्भागवत महापुराण) वे एक ही स्वरूप में अभूतपूर्व संन्यासी और अद्भुत गृहस्थ हैं, उनमे अत्यधिक अद्भुत रजोगुण व शक्ति थी, साथ ही वे त्याग की पराकाष्ठा थे। गीता के प्रचारक श्रीभगवान अपने उपदेशों की साकार मूर्ति थे, वेदों की ऋचाएं उनका ही गायन करती हैं, अनासक्ति के उज्ज्वल उदाहरण हैं श्रीभगवान।उन्होंने कभी सिंहासन नही अपनाया, न ही उसकी चिंता की। जिनके आने से राजा और चक्रवर्ती सम्राट अपने मुकुट उनके चरणों मे रख देते थे, जिनको प्रथम पूज्य बनाकर युधिष्ठिर जैसे राजा अपने को धन्य समझते थे, उन श्रीभगवान ने सदैव राजा उग्रसेन के प्रतिनिधि के रूप में एक छोटी से नगरी में अनासक्त कर्म किया। उन्होंने बाल्यकाल में जिस सरल भाव से महान परमहंस गोपियों के साथ क्रीड़ा की, वही सरलता कंस के वध, महाभारत के युद्ध और यदुवंश के विनाश तक बनी रही। इतनी सरलता और मधुरता कि दो सेनाओं के बीच वह मुस्कराते हुए अर्जुन को विश्व का महानतम गूढ़तम दार्शनिक ज्ञान देते हैं जो आज भी पढ़ा जा रहा है लेकिन लोग तृप्त नहीं हो पा रहे। जो किया पूरे मन से, गोपियों के साथ सर्वश्रेष्ठ प्रेमी, नन्द बाबा और यशोदा माँ के सर्वश्रेष्ठ पुत्र ऐसे कि सब उनके जैसा पुत्र चाहते हैं, रुक्मिणी के पति के रूप में आदर्श पति, आदर्श योद्धा, आदर्श दार्शनिक, आदर्श रणनीतिकार, आदर्श राजनेता, और न जाने क्या क्या। विश्व के इतिहास में इतनी अनासक्ति और पूर्णता के साथ जीवन किसी ने आज तक नहीं जिया। साकार निराकार, कर्म सन्यास, यज्ञ दान तप और न जाने ऐसे कितने विवादों को अपनी सहज और प्रामाणिक तर्कसंगत वाणी से समाप्त कर दिए और बोले कि आत्मशुद्धि की तरफ बढ़ो। कर्म का एकमात्र उद्देश्य आत्मशुद्धि है।गोपियों के साथ उनके विशुध्द प्रेम को केवल एक आजन्म पवित्र नित्य शुद्ध शुकदेव गोस्वामी जैसा पूर्ण ब्रह्मचारी और पवित्र स्वभाव वाला प्रेमरूपी मदिरा में डूबा भक्त ही समझ सकता है। जिसने प्रेम में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो केवल वह ही मेरे श्रीभगवान मधुराधिपते को समझ सकता है। अहैतुकी भक्ति, निष्काम प्रेम, निरपेक्ष कर्तव्य निष्ठा का आदर्श धर्म के इतिहास में एक नया अध्याय है जो प्रथम बार सर्वश्रेष्ठ अवतार श्रीभगवान कृष्ण के मुख से निकला, जिनके कारण धर्म से भय और प्रलोभन हमेशा के लिए समाप्त हो गए। प्रेम केवल प्रेम के लिए, कर्तव्य कर्तव्य के लिए, काम काम के लिए। यह श्रीभगवान के मौलिक आविष्कार हैं जिन्हें उनसे पहले वेदों ने भी नहीं गाया। जिसके हृदय में अभी भी धन, स्त्री या पुरुष और यश के बुलबुले उठते रहते हैं, वह तो गोपियों और श्रीभगवान के प्रेम को समझने का साहस भी न करे। वह प्रेम तो ऐसा है कि उस समय संसार का कोई स्मरण नही रहता, समस्त प्राणियों में केवल श्रीभगवान दिखते हैं, आत्मा केवल श्रीकृष्ण से भर जाती है।
जन्माष्टमी
वेदों और उपनिषदों की व्याख्या करना बड़ा मुश्किल है, और संसारी जीवों को तो उसका अर्थ भी नहीं उतरता। इसलिए वेद जिनकी सांसें हैं, उन्ही श्रीभगवान ने आविर्भूत होकर गीता कर प्रचारक के रूप में श्रुति का अर्थ समझाया, और आश्चर्य यह कि इसे उपनिषदों और वेदों का निचोड़ माना गया। यहां आदि शंकराचार्य को अद्वैत मर दिखता है तो श्रीरामानुजाचार्य को विशिष्ट अद्वैत तो श्रीमध्व आचार्य को द्वैत दिखता है। सभी मत और सम्प्रदाय यहां आकर अपनी पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। श्रीभगवान जब कहते हैं कि तुम हर मार्ग से मेरी ही आराधना करते हो, तो मन से सभी संशय और भय समाप्त हो जाते हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि यह सारा जगत मुझमे वैसे ही गूंथा है जैसे धागे में मणि रहती है, क्योंकि मुझसे अलग तो कुछ है ही नहीं, तो सारी संकीर्णता और भेदभाव की दीवार गिर जाती है। गीता के वाक्य, श्रीकृष्ण की वज्र के समान गंभीर और महती वानीसब के बंधन तोड़ देती है और सभी को परम् पद का अधिकारी बना देती है। पलायन तो उनके शब्दकोश में नहीं था। कर्मयोगियों में सर्वश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने उपदेशों को जिया, और कहा कि कर्म किए बिना कोई नहीं रह सकता, कर्म करो लेकिन उसका विज्ञान समझो, कर्म जम के करो लेकिन फल की चिंता न करो, उलझ मत जाओ, कर्म का एकमात्र उद्देश्य है आत्मशुद्धि, इसलिए चिंता न करो, श्रीभगवान की शरण मे आ जाओ और वह तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर देंगे। जिन्हें राजसूय यज्ञ में मेहमानों के जूते साफ करने में भी आनंद आता है, और अपने भक्त का रथ हांकने में भी, जिन्हें मिट्टी खाने में मजा आता गई और गरीब सुदामा के सूखे चावल भी, ऐसे महानतम श्रेष्ठतम प्रियतम अद्भुत आश्चर्य और विरोधाभास से भरे हुए साकार और निराकार से परे श्रीकृष्ण ही मेरी गति हों, मेरे आश्रय हो, और मैं अनन्तकाल तक उनका दास रहूं। जहां जहां जाऊं करूं तेरी सेवा तुम सम ठाकुर और न देवा।।
ग़ज़ल
जाते जाते वो अपनी तस्वीर दे गए, हँसती हुई मेरी आँखों में नीर दे गए। देखती रही अपने हाथों को चुपचाप, हाथों में वो जुदाई की लकीर दे गए। मन में एक कसक रहेगी ता-उम्र अब, जिंदगी भर कम ना हो ऐसी पीर दे गए। मोहब्बत का मेरी मजाक बना गये वो, बेवफाई का इल्जाम वो मेरे सिर दे गए। दोष किसको दूँ उनको या हालात को, जाते हुए मुझे ख़िताब ऐ फकीर दे गए। मेरी मोहब्बत ही इतनी गरीब निकली, कौड़ियों के भाव गैरों को ज़मीर दे गए। आगाह कर सके "सुलक्षणा" औरों को, इसीलिये वो कलम ऐ शमशीर दे गए। ©® डॉ सुलक्षणा अहलावत