मनुष्य और संवेदना

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 25 Aug, 2019 | 1 min read

उम्मीद कैसी??


मनुष्य की संवेदनाएं मरती जा रही है, मनुष्य स्वयं के लिए जीने लगा है,उसे सिर्फ अपने लिए अवसर चाहिए,अपने लिए हर सुख चाहिए, उसे फर्क नही पड़ता वह अपनी कार्य सिद्धि के लिए यदि किसी को प्रताड़ित भी कर रहा है,यह संसार क्या ईश्वर ने बस इसलिए बनाया कि हम सिर्फ अपना पेट भरते रहे,अपने लिए जिये।

लेकिन हम इन सब से ऊपर उठेगें कैसे ?हमने संस्कृत पढ़ना छोड़ दिया धर्म ग्रन्थ अब हमारे लिए काल्पनिक कहानी लगने लगे है हम भूल चुके वेद-उपनिषद अपनी सभ्यता,अपनी संस्कृति

#ईशावास्योपनिषद् मे लिखा है-

#ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

अर्थात इस संसार मे जो कुछ भी है उसका हमे त्याग पूर्वक उपभोग करना चाहिए।

#सर्वे भवन्तु सुखिनः का संदेश देता है हमारा धर्म,पर आज हम इन सब ग्रन्थों से स्वयं तो मुह मोड़ रहे हैं अपने बच्चों को भी अलग कर दे रहे फलतः यदि कोई पुत्र संस्कार भूल कर बूढ़े माँ बाप को घर से बाहर निकाल देता है अथवा स्वार्थ लिप्त होकर कोई व्यभिचार ही कर देता है तो क्या उसका दोषी वह स्वयं अकेला है?

संस्कार सीखने के लिए संस्कृति को अपनाइये सभ्यता को समझिये पर जब हम अपनी भाषा से ही मुह मोड़ रहे हैं तो धर्म ग्रन्थों को क्या समझ पायेगें।#पहले पिता अपने बच्चों को #गीता -वेद- रामायण की पुस्तक पढ़ाते थे उनसे उन्हें संस्कार मिलता था त्याग तप दान एवं निष्काम कर्म की शिक्षा मिलती थी किन्तु अब बच्चे #हैमलेट,ट्वेल्थ नाईट,मैकबेथ,आर्म्स ऐन्ड द मैन मे पाश्चात्य प्रेम के आकर्षण मे ही डूबे रहते है उन्हें राधा कृष्ण के पवित्र नैसर्गिक प्रेम के विषय मे बताने के बजाय #सेक्सपियर,वर्डसवर्थ,कीथ की रचनाओं की ओर ढकेल दिया जाता है वो जो कुछ सीखते हैं वही करते हैं उसमें उनकी क्या गलती,

ईश्वर ने सबसे उत्तम शास्त्र ,सबसे उत्तम संस्कृति, सबसे उत्तम सभ्यता हमे सौंपी थी पर हमने तोड़ मरोड़ कर उसका छीछालेदर कर दिया।


कौन सिखायेगा अब-

#अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपकारि सेवितम्।


चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।

अर्थात् नित्य अभिवादन करने से वृद्धों की सेवा करने चार चीजें बढ़ती है #आयु ,विद्या,यश और बल।

इसी प्रकार के ना जाने कितने नीतिपरक श्लोकों सूक्तियों से भरा पड़ा है हमारा संस्कृत साहित्य किन्तु हम अपनी मूर्खता से अपनी सभ्यता, अपने संस्कार ,अपने मूल्य,अपनी पहचान सब गवां रहे हैं,और फिर रोना रोते हैं कि पुत्र नालायक है, समाज दोषी है ,परिवार टूट रहे हैं,रिश्ते बिगड़ रहे हैं आदि आदिआदि।

जो हमारे मूल्य है यदि उसे हम भावी पीढ़ी तक पहुँचाने मे स्वयं व्यवधान बन रहे हैं तो हम अपनी संतानो से ऐसी अपेक्षा क्यों करते हैं कि वो हमे उसी प्रकार का सम्मान दे जैसा हमने अपने परिवारों को दिया है।

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