खिलौने जो ज़िंदा थे
वर्मा दम्पत्ति बेजान लैपटॉप के आगे घँटों से बैठे थे और कभी नेटवर्क का मामला तो कभी नींद का जोर पर आस थी कि शायद बच्चे ऑनलाइन आ जायें, पर सब व्यर्थ रहा। बरसों से रोज़ यही क्रम बना था,निशा को अक्सर मोहन यही समझाते कि हमारे खिलौने यही दोंनो हैं क्योंकि अपना बचपन तो कागज़ की नाव ,पतंग और कपड़े की गुड़ियों से ही निकल गया। अक्सर दोनों बाजार जाते तो त्योहारों पर न जाने कितने खिलौने उठा लाते । इस आस में कि शायद किसी रोज़ उन्हें खेलने वाले आयेंगे ,कभी आते तो उन्हें उन सबमें कोई दिलचस्पी भी न महसूस होती। धीरे धीरे व्यस्तता का अजगर वो पल भी निगल गया बची तो जीवन मे बस एक निस्तब्धता। अब तो त्यौहार भी बस उदासी में निकलने लगे एक दिन मायूस पत्नी को समझाते हुए मोहन ने कहा ,"निशा क्यों न हम उन्ही खिलौने को बनाये जो हम बचपन मे खेलते थे। एक दो कागज़ की नाव और कपड़े की गुड़िया सुबह की सैर पर किसी कूड़े के ढेर में आजीविका खोज़ते बच्चों में बचपन की चिंगारी चमका देते। अब दोनों का ग़म कुछ छँटने लगा था,त्यौहार पर इस बार बच्चे आये तो दोनों वृद्ध खुश हुए । उन्हें वहीँ बसने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी चाहिये था पिता से, उनकी मशीनी ज़िन्दगी और आधुनिक सोच ने ये भरम भी तोड़ दिया कि ,वो उनके बच्चे हैं। जैसे आये थे दोनों बेटे,वैसे ही एक हफ़्ते बाद चले भी गए । पर अब निशा और मोहन को उनके ऑनलाइन आने का इंतजार न था। थके मन और परेशान दिमाग़ लिए दोनों ने सोना पसन्द किया,अगले दिन सारे खिलौने बटोर कर ले गए अनाथ आश्रम ।उनके इस कदम ने न जाने कितने जीवित खिलौनों में रौनक भर दी थी। बेजान खिलौनों (लैपटॉप और फ़ोन)पर निर्भरता अब कम हो चुकी थी।रोज दोनों वहीं आते और थक कर चैन की नींद सोते। एक दिन पुराना एलबम अलमारी में निकला तो निशा ने यह कहकर उसे ट्रंक में डाल दिया,"कि ये खिलौने कभी ज़िंदा थे ,चलिए अभी अनाथ आश्रम ही चलते हैं। अब खिलौने और खेलने वालों के किरदार बदल चुके थे।