आप क्या जानो स्टैंडर्ड

आप क्या जानो

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Sumita Sharma
Sumita Sharma 08 Jul, 2020 | 1 min read

क्या मम्मा...आज फिर से वही सब....टिफ़िन खोलते ही   उसके लहज़े में फिर से शिक़ायत थी।

"क्योँ ...क्या हुआ ?"माधवी ने सवाल किया।

"मेरी हर सहेली और क्लासमेट्स एक से बढ़कर एक चीज़ें लाते हैं;कभी पिज़्ज़ा,बर्गर और नई-नई डिशेज़ और एक मैं हूँ"टिफिन खोलते ही फिर से विदुषी का  स्वर कड़वाहट से भर गया।

मुझे ये सब लेकर स्कूल नहीँ जाना,लंच बॉक्स टेबल पर लगभग पटकते हुए बोली ,आप न मुझे सौ रुपये दे दो खा लूँगी कुछ ख़रीद कर कैंटीन से।

"बेटा आज ले जाओ शनिवार को पक्का कुछ अलग बना दूँगी अभी ऑफिस में ऑडिट चल रहा है",माधवी ने बेचारगी से कहा।

"नहीँ....मुझे अपनी इंसल्ट नही करानी अपने दोस्तों के बीच में,ये सब ले जाकर...सब रोज अलग अलग चीज़े लाते हैं और पॉकेट मनी भी और एक मैं हूँ ...मुझे ही नमूना बना रखा है आपने।"विदुषी ने बेहद बिगड़े स्वर में उत्तर दिया।

माधवी की आँखे बढ़ती बेटी के हद से ज्यादा ऊँचे स्वर से छलछला उठीं।

"रोज़ रोज़ सब्ज़ी पराँठा रख देती हो ;पता भी है आपको?दोस्तों के बीच मे कितनी इंसल्ट होती है मेरी,ज़्यादा किया तो गाँव वालों की तरह एक फ़ल"विदुषी रोज़ की तरह चीखे जा रही थी ।

माधवी ने अपने स्वर को शान्त रखने का भरसक प्रयास करते हुए कहा,"पर बेटा! शनिवार को तुम्हें बदल कर लंच देतीं हूँ फिर मुझे भी तो अपने ऑफिस जाना होता है,मैं तुम्हें पौष्टिक खाना देती हूँ..इसमें बुराई क्या है?"

आप क्या जानो स्टैंडर्ड ,अच्छे घर के बच्चों के बीच मुझे टिफ़िन खोलते ही जोकर वालीं फ़ीलिंग आती है।

"बेटा!अगर पौष्टिक खाना नहीँ खाओगी तो कमज़ोर हो जाओगी"माधवी ने ज़बरदस्ती टिफ़िन पकड़ाते हुए कहा।

पर विदुषी...वो अपनी माँ की नज़र बचाकर मेज़ पर ही लंच बॉक्स छोड़कर चुपचाप स्कूल बस में बैठ गयी और निकल गयी।

जब माधवी की नज़र उस पर पड़ी तो काफी देर हो चुकी थी और उसके दफ़्तर जाने का समय भी हो गया था ।

पर उसका दिमाग़ सुन्न हो रहा था कि आख़िर उससे गलती कहाँ हो गयी रह रह कर वो उस दिन को कोस रही थी जब उन दोनों ने स्कूल बदलने का निर्णय लिया था।

विपुल उसके पति दूसरे शहर में शिक्षक थे जिन्हें रोज़ सुबह सवेरे ही रेल से नौकरी करने जाना होता था और माधवी एक ऑफिस में क्लर्क थी ।सब कुछ बेहद अच्छे से चल रहा था ,विदुषी उनकी एकमात्र सन्तान थी और पढ़ने में बहुत मेधावी भी ।विपुल और माधवी का एक ही सपना था कि उनकी बेटी शहर के सबसे बड़े स्कूल में पढ़े।

दोनों पति पत्नी उसी विद्यालय में पढ़ाने के सपने में लगे रहते और ईश्वर ने उनकी सुन भी ली।

संयोग से विदुषी ने उस विद्यालय की ग्यारहवीं कक्षा की प्रवेश परीक्षा पास कर ली तो विपुल ने दो चार जान पहचान वालों के प्रयास से सिफारिश लगा कर एडमिशन भी करा दिया।

अब वो दोनों तो लम्बे लम्बे खर्चों के दायरे में आ गए थे और विदुषी ,वो तो अलग ही दुनिया में विचरण करने लगी थी।उसे अपने मध्यम वर्गीय माता पिता आउटडेटेड लगने लगे थे।

माधवी की ड्रेसेज और स्कूटी उसे अपनी इमेज बिगाड़ती महसूस होती।तो उसने उल्टे सीधे बहाने बनाकर उन दोनों को बस के लिए मना लिया।

अब रोजाना ही माधवी से उसकी तक़रार होती टिफ़िन को लेकर।विपुल शनिवार को घर आते तो माधवी की बात भी न सुनते ,क्योंकि उनकी आँखों पर बेटी के अच्छे रिजल्ट की पट्टी जो बन्धी थी।

क्षमता से ज़्यादा ख़र्च और दुलार ने विदुषी को उद्दण्ड भी बना दिया था ,ऊपर से सहपाठियों की बराबरी ने भी कड़वे करेले पर नीम चढ़ाने में इज़ाफ़ा कर दिया।

जब माधवी ने ऑफिस जाने के लिए अलमारी से निकाल कर अपना पर्स खोला तो ज़िप थोड़ा खुला था और उसमें रखे रुपये भी कम थे।वह इस अतिरिक्त चोट के लिए तैयार न थी।

उसे समझ आ गया था ,कि वह समझ रही थी कि विपुल उसका पर्स छूते हैं पर ये तो उसकी लाड़ली बिटिया ही कर रही थी।

एक तो आज सुबह सुबह ही बेटी से बहस हुई थी और दूसरे यह घटना उससे कुछ खाया भी न गया।

गेट पर ताला लगाकर ख़राब मन और रुँधे गले के साथ उसने टैक्सी रोकी और ऑफिस की तरफ निकल गयी।

दोपहर को कैंटीन में भी सहकर्मी रीना के लाख ज़ोर देने पर भी उससे खाया न गया,साथ ही उम्रदराज़ सहकर्मी ऊषाजी भी बैठी थीं।

जिन से वह अक़्सर अपने मन की बात कर लेती आज उनसे भी बच रही थी पर ऊषा जी की अनुभवी आँखों ने सब कुछ भाँप लिया।

उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ मे लेकर ममतामयी स्वर में कहा,"तुम मुझे अपनी परेशानी बता सकती हो ,शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ"।

उनके स्नेह भरे स्पर्श से माधवी की आँखे छलक गयीं और उसने उन्हें अपनी व्यथा कह सुनाई।

उन्होंने माधवी को कुछ सुझाव दिए और दोनों अपनी अपनी सीट पर जाकर काम करने लगीं।

शाम को जब घर लौटकर माधवी ने घण्टी बजाई तो विदुषी की आँखे माँ के हाथों को देखकर दरवाज़ा खोलते ही चमक उठीं और माधवी ने भी यों जतलाया जैसे सब सामान्य हो।

सुबह टिफ़िन में पिज़्ज़ा देखकर विदुषी झूम उठी ,अब माधवी को भी आराम था।कभी ब्रेड-बटर,जैम ,बर्गर और उसके मनपसन्द खाने की बारिश होने लगी थी।

अब वह आराम से उठती और विदुषी को भी ताक़ीद कर दी कि अगर ये सब रोज़ खाना है तो तैयारियां भी करवानी होँगी।

अब विदुषी जिसे एक ग्लास पानी लेकर भी पीना पसन्द नहीँ था ,सब्ज़ियों को काटने और अन्य तैयारियों में लग गयी पर जल्द ही वह इस सब से ऊबने भी लगी ।

अब अगर वह माधवी से कभी घर के खाने की फरमाइश करती तो वह बहाना बना देती ,और अपने लिए उसकी नापसन्द की चीज़ें बनाती।

अब विदुषी जिन चीज़ों के लिए बद्तमीजी की हद तक उससे झगड़ा करती थी उनसे ऊबने लगी थी।माधवी भी तटस्थता धारण किये रही।

इधर माधवी ने एक और कड़ा क़दम उठाया उसने उसे सारे पैसे उसे थमा कर कहा,"आजकल मैं थोड़ा भूलने लगी हूँ और तुम भी अब इतनी बड़ी हो चुकी हो कि इन्हें सम्भाल सको।"

तो जब मैं जितना बताऊँ निकाल कर दे दिया करना,और मुझे लिखित हिसाब भी दे दिया करना ,थोड़ी ना नुकुर के बाद विदुषी तैयार हो गयी।अब माधवी तो आराम से सब देखने लगी पर विदुषी की नींदे हराम हो गयी।

उसे समझ मे आने लगा कि उस पर मम्मी पापा अपनी क्षमता से ज़्यादा ख़र्च हो रहा है।पैसों की चोरी रुक गयी थी और हर पाई का हिसाब भी माधवी को देना पड़ता।

अब कैंटीन की पार्टियाँ भी लगभग कम हो गयी थीकुछ ही दिनों में उसे बहुत कुछ समझ आ गया पर कहे कैसे और किससे।

रविवार को घर मे सब घर ही होते थे और विदुषी की इच्छा हुई पिज़्ज़ा खाने की।

माधवी से अनुमति लेकर सहज़ भाव से वह अलमारी की ओर बढ़ी परन्तु चिंतित स्थिति में लौट आयी ।

"क्या हुआ उसने पूछा "?

"वो..वो.. मम्मी दो हज़ार रुपये कम हैं ,कल तो नोट पर्स में ही था,उसने रोते हुए कहा और धम्म से बिस्तर पर बैठ गयी ।अभी तो मेरी एक्स्ट्रा क्लास की फीस भी देना बाकी था औऱ ये ख़र्चे भी रह गए थे अब सब कैसे होगा।"

विपुल भी नाराज़गी भरे स्वर में बोले ,"क्या ज़रूरत थी उसे पूरे पैसे थमाने की"

पर माधवी ने जैसे मौन धारण कर लिया था,उसने किसी बात का कोई भी जवाब न दिया।विपुल के साथ उसकी बातचीत न के बराबर ही चल रही थी।

रात के खाने पर उसने विपुल और विदुषी को आवाज़ दी ,विपुल तो आ गए पर विदुषी उससे खाया भी न जा रहा था।नुकसान का दुःख और चिन्ता उसे उदास चेहरे पर स्पष्ट थी।

करीब एक माह इसी तरह निकल गया ;पर विदुषी की हालत खस्ता हो चुकी थी और माधवी मज़े ले रही थी।

इस बार भी माधवी ने जैसे ही विदुषी को अपने पैसे सम्भालने को दिए ;वह रो पड़ी ,"मम्मी मुझे नहीँ रखना...ये सब आप ही सम्भालो ,मैं थक गई हूँ।मुझे अपनी पहली जैसी मम्मी ही चाहिये"।

"पर बेटा!...अब तो तुम एक स्टैंडर्ड लाइफ जी रही हो और मैं भी अब तुम्हें समझने लगी हूँ और खुद को भी बदलने की कोशिश कर रही हूँ कि तुम्हें अपनी सहेलियों के बीच जोकर जैसा न लगे।"माधवी आराम से बोली।

"मम्मी मैं ग़लत थी,मैं अपनी क्लास में रोब जमाने के लिये आपके या पापा के पैसे निकाल लेती थी।कैंटीन में खाना खाती और लंच बॉक्स दूसरे लोग।"

"मुझे पूरे महीने जंक फूड ले जाने के बाद समझ आया कि आप नौकरी करते हुए भी मेरे लिए मेहनत करके जो बनाती थीं वो दूसरे बच्चों को नहीँ मिलता।"विदुषी ने रुक रुक कर अपनी बात पूरी की।

"पर अब तो तुम्हें ख़ुश होना चाहिए "माधवी बोली।

"मुझसे जब से पैसे खोये हैं तब से ठीक से सो भी नहीं पाई अब समझ आता है कि आप जो कैसा लगता होगा आये दिन?"विदुषी ने नज़रें झुका कर शर्मिंदगी से कहा।

"आय एम सॉरी ,अब ऐसा नहीं होगा"

अब माधवी ने भी और परीक्षा न लेते हुए उसे माफ़ कर दिया और पास बैठा कर समझाया,"बेटा!स्टैंडर्ड किसी की नक़ल में नहीँ ख़ुद को ग़लत रास्तों पर जाने से बचने में है।"

"मैं तुम्हारे स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर तुम्हारे लिए मेहनत करके लंच बनाती थी,क्योंकि तुम्हें मैंने बहुत मुश्किल से पाया है और तुम्हारी उम्र के बच्चों को हेल्थी रहना जरूरी है"।

आज विदुषी मां की बात अच्छी तरह सुन रही थी और समझ भी रही थी ।

"आपने मुझे माफ़ कर दिया मम्मी "एक बार फिर उसने बेयक़ीनी से माधवी से प्रश्न किया?

"एक शर्त पर अपने तरीक़े बदलने पड़ेगें तुम्हे ,क्योंकि लोग पहले तुम्हें सुनेंगे ,मार्कशीट को नहीँ"माधवी ने थोड़ा शब्दों को चबाते हुए सख्ती से कहा।

श्योर...उसने गले लगकर कहा,तो माधवी ने भी उसके सिर पर हाथ फेर दिया।

मम्मी वो दो हज़ार रुपये...विदुषी ने फिर प्रश्न किया।

"भूल जाओ...अगर मेरी बेटी ने इस घटना से कुछ सीख ली तो मेरे लिए यह कोई मंहगा सौदा नहीँ,पर इसमें दोहराना मत आगे"माधवी ने इत्मीनान से कहा।

"मम्मी आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं , आज शाम को दाल चावल खाऊँगी आपके हाथ से "

" ठीक है ...बना दूँगी और स्टैंडर्ड खाना "माधवी ने चिढ़ाते हुए कहा।

"साल भर तो उसकी तरफ देखूँगी भी नहीँ", इतना कहकर विदुषी रसोई में चाय बनाने चली गयी।

और माधवी ...उसके चेहरे पर बेटी के सँभलने का सुकून था थैंक यू ऊषा जी वह मुस्कुरा उठी थी।


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