दहलीज़
दहलीज़ तो बेटे की भी तय होती है
हम भी निर्धारण में उतने ही दोषी हैं
गिरो तो रोना मना हैं
पलकों को भिगोना मना है
दर्द कितना भी हो
मजबूत दिखने का दबाव होता है
गर ज़रा पलक भीग जाये
तो लड़कियों से तुलना भी होती है
मर्द बनो मज़बूत दिखने की
मजबूरी थोपना ऐसा क्या ज़रूरी है
बड़ा हो गया है थोड़ा परे बैठ
अच्छे होने के न जाने कितने
उदाहरण सुबह शाम समझाते हैं
फिर दिन भर न जाने
कितनी फरमाइश करने वाले
चुपचाप थाली में परोसा
बिना शिकायत किये खा जाते हैं
धीरे धीरे छोड़ देते हैं
वो अपना मन बाँटना
उस पर बहन का अधिकार
जो सिद्ध होता है
रोज़ी कमाने तो वो भी
घर छोड़ जाते है
नख़रे करने वाले समझौता
सीख लेते है
घर का सहारा बनने को
सीखते हैं वो भी
अकेले पंख फड़फड़ाना
और उड़ना
बेटी का तो मालूम होता है
कि घर छोड़ेगी एक दिन
पर बेटे बिन बताये छोड़ जाते हैं
माँ के हाथ के बने
लड्डू उन्हें भी पसन्द होते हैं
पर रोज़ी रोटी के लिये
जो भी उपलब्ध हो पसन्द
परे रख कर खा जाते हैं।
ज़िम्मेदारी की डोर
उन पर कसी होती है
परफेक्ट बेटे,पति
और पिता होने का तनाव
वो भी झेलते हैं
वो भी हमारा ही अंश हैं
थोड़ा बंदिशों की डोरी
का कसाव कम करें
उन्हें घर छोड़ने से पहले
घर न छोड़ने दें
बेटी की तो सावन,राखी
में याद से कलेजा नम होता है
पर बेटा भटक जाये तो
वापसी का कोई मौसम नहीँ होता है।
फेमिनिस्ट होने के फेर में उसे अधीर न करें
अपने ही आँगन में बेटा बेटी में लकीर न करें
सुमिता शर्मा
मौलिक
कानपुर
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
वाह, क्या बात कही 👏👏
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