दहलीज़

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Sumita Sharma
Sumita Sharma 01 Sep, 2020 | 1 min read

दहलीज़


दहलीज़ तो बेटे की भी तय होती है

हम भी निर्धारण में उतने ही दोषी हैं


गिरो तो रोना मना हैं

पलकों को भिगोना मना है

दर्द कितना भी हो

मजबूत दिखने का दबाव होता है


गर ज़रा पलक भीग जाये

तो लड़कियों से तुलना भी होती है

मर्द बनो मज़बूत दिखने की

मजबूरी थोपना ऐसा क्या ज़रूरी है


बड़ा हो गया है थोड़ा परे बैठ

अच्छे होने के न जाने कितने 

उदाहरण सुबह शाम समझाते हैं


फिर दिन भर न जाने

कितनी फरमाइश करने वाले

चुपचाप थाली में परोसा

बिना शिकायत किये खा जाते हैं


धीरे धीरे छोड़ देते हैं 

वो अपना मन बाँटना

उस पर बहन का अधिकार 

जो सिद्ध होता है


रोज़ी कमाने तो वो भी 

घर छोड़ जाते है

नख़रे करने वाले समझौता 

सीख लेते है


घर का सहारा बनने को

सीखते हैं वो भी

अकेले पंख फड़फड़ाना

और उड़ना


बेटी का तो मालूम होता है

कि घर छोड़ेगी एक दिन

पर बेटे बिन बताये छोड़ जाते हैं


माँ के हाथ के बने 

लड्डू उन्हें भी पसन्द होते हैं

पर रोज़ी रोटी के लिये

जो भी उपलब्ध हो पसन्द

परे रख कर खा जाते हैं।


ज़िम्मेदारी की डोर 

उन पर कसी होती है

परफेक्ट बेटे,पति 

और पिता होने का तनाव 

वो भी झेलते हैं


वो भी हमारा ही अंश हैं

थोड़ा बंदिशों की डोरी

का कसाव कम करें

उन्हें घर छोड़ने से पहले 

घर न छोड़ने दें


बेटी की तो सावन,राखी

में याद से कलेजा नम होता है

पर बेटा भटक जाये तो 

वापसी का कोई मौसम नहीँ होता है।


फेमिनिस्ट होने के फेर में उसे अधीर न करें

अपने ही आँगन में बेटा बेटी में लकीर न करें


सुमिता शर्मा

मौलिक 

कानपुर

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Sumita Sharma

sumitasharma

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sonnu Lamba · 4 years ago last edited 4 years ago

    वाह, क्या बात कही 👏👏

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