जब वो खाली कटोरे को ढक
कर परे सरकाती है।
मैं बाद में खा लूँगी, उसके चेहरे की तृप्ति
सच बोलने का यक़ीन दिलाती है।
तब पत्नी कुछ कुछ माँ जैसी ही हो जाती है।
ख़ुद को बीमारी में भी सही जतलाती है
पर एक छींक पर भी मेरी वो तूफान उठाती है
न जाने किस किस पर शक़ कर
चुपके से नज़र भी उतारती है
फिर तुलसी के नीचे दिया भी जलाती है
तब पत्नी भी कुछ कुछ माँ जैसी ही हो जाती है
छुपाये हुए,डिब्बों में सँजोये हुए
मायके से मिले पैसे ,
पल में हाथों मे भर लाती है
माथे की एक शिकन देखकर
सब ठीक हो जाएगा यह
भरोसा दिलाती है
तब पत्नी भी कुछ कुछ माँ जैसी ही हो जाती है
अपनी पसन्द अच्छी होने का रौब दिखा
बहुत कुछ बाजार से बटोर लाती है
अगर पहन लूँ,तो सन्तुष्टि से मुस्कुराती है
बदपरहेजी पर आँख भी दिखाती है
तब पत्नी भी कुछ कुछ माँ जैसी हो जाती है
जब बच्चे उड़ जाते हैं ,
अपनी मंज़िल की ज़ानिब को
और नीड़ हों पीछे सूने से
तब इधर उधर की बातों से
अंतस के सूने आँगन में
वो नेह दीप धर जाती है
अपनी पीड़ा को ऑंखों के कोनो में कहीँ छुपाती है
तब पत्नी भी कुछ कुछ माँ जैसी हो जाती है
सुमिता शर्मा
कानपुर
मौलिक
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
सच्चाई है यह तो...👌💐💐
बहुत अच्छे
बहुत अच्छे
Thank you
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