Shikha Shrivastava

shikhashrivastava

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रौद्र प्रकृति
बेतहाशा काटे वृक्ष,अब क्यूँ है,तड़प रहा। ऑक्सिजन के लिए ,दर -दर भटक रहा। प्रकृति ने जो कुछ दिया था मुफ्त मैं। पाने के लिए अब तुझे, हर जतन करना पड़ रहा। प्रकृति को रौंद कर,खुद को समझता ख़ुदा। क्रोध पर उसके अब, क्यूँ है गिड़गड़ा रहा। जल को मलिन, किआ खूब तालाब- कुएं पाट के। बून्द -बून्द पानी को, मछ्ली की तरह मचल रहा। हवा की जगह है धुआं, वर्षा की जगह आँधियाँ। एक -एक सांस को मशीनों पे निर्भर हुआ। धूप थी जो खिली,अब तुझको ना मिली। बन्द घुटते से घरों में,रोज़- रोज़ मर रहा। अब क्यूँ, तू गिड़गड़ा रहा। प्रकृति का रौद्र रूप, तुझको क्यूँ अखर रहा। शिखा 24:04:2021

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by shikhashrivastava

बेतहाशा काटे वृक्ष,अब क्यूँ है,तड़प रहा। ऑक्सिजन के लिए ,दर -दर भटक रहा। प्रकृति ने जो कुछ दिया था मुफ्त मैं। पाने के लिए अब तुझे, हर जतन करना पड़ रहा। प्रकृति को रौंद कर,खुद को समझता ख़ुदा। क्रोध पर उसके अब, क्यूँ है गिड़गड़ा रहा। जल को मलिन, किआ खूब तालाब- कुएं पाट के। बून्द -बून्द पानी को, मछ्ली की तरह मचल रहा। हवा की जगह है धुआं, वर्षा की जगह आँधियाँ। एक -एक सांस को मशीनों पे निर्भर हुआ। धूप थी जो खिली,अब तुझको ना मिली। बन्द घुटते से घरों में,रोज़- रोज़ मर रहा। अब क्यूँ, तू गिड़गड़ा रहा। प्रकृति का रौद्र रूप, तुझको क्यूँ अखर रहा। शिखा 24:04:2021

01 May, 2021
माँ
माँ तुझसा न मुझको,अब तक कोई और मिला। तुझसे ही है अस्तित्व मेरा,तुझसे ही व्यक्तित्व मिला। बिन पूछे सिखलाती थी, जो बातें तुझको आती थी। दिन रात लगाती थी,अपने पर कभी नहीँ जतलाती थी। पढ़ते थे जब हम सब तो, भोर भये जगाती थी। करती थी हर , जिद पूरी, पर गलत कहाँ सिखलाती थी। मित्रों सा व्यवहार कभी,कभी गुरु भी बन जाती थी। गलती हो कितनी भी लेकिन,माफी तो मिल जाती थी। मंजिल तक पहुंचने तक,तेरा हर पल साथ मिला। बिन शर्तो के अनवरत,तेरा ही उपकार मिला। चाहे कितनी मुश्किल हो,आसान बना ही देती है। माँ ही है ,जो राह सजा ही देती है। जिन बच्चों को माँ ने मिली,क्या क्या उनके साथ हुआ।। माँ का साया हो सर पर ,पूरी सबकी हो ये इच्छा। दूर रहें, फिर भी, दूर नहीँ ,हम् तुझसे माँ। याद तेरी आती रहती,हर छोटी छोटी बातों पे। शिखा 9:05:2021

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by shikhashrivastava

माँ

10 May, 2021