Paperwiff
by shikhashrivastava
बेतहाशा काटे वृक्ष,अब क्यूँ है,तड़प रहा। ऑक्सिजन के लिए ,दर -दर भटक रहा। प्रकृति ने जो कुछ दिया था मुफ्त मैं। पाने के लिए अब तुझे, हर जतन करना पड़ रहा। प्रकृति को रौंद कर,खुद को समझता ख़ुदा। क्रोध पर उसके अब, क्यूँ है गिड़गड़ा रहा। जल को मलिन, किआ खूब तालाब- कुएं पाट के। बून्द -बून्द पानी को, मछ्ली की तरह मचल रहा। हवा की जगह है धुआं, वर्षा की जगह आँधियाँ। एक -एक सांस को मशीनों पे निर्भर हुआ। धूप थी जो खिली,अब तुझको ना मिली। बन्द घुटते से घरों में,रोज़- रोज़ मर रहा। अब क्यूँ, तू गिड़गड़ा रहा। प्रकृति का रौद्र रूप, तुझको क्यूँ अखर रहा। शिखा 24:04:2021
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