दरवाज़े की घंटी से नींद टूटी तो देखा सुबह के पाँच बजे रहे थे।शिवी सो रही थी सो मैं ही उठ के गया।"रविवार के दिन भी चैन से सोने नहीं देते लोग।"नींद भरी आँखों को मलते हुए दरवाज़ा खोला तो देखा शिवी के पापा खड़े थे।
"पापा आप?इतनी सुबह?सब ठीक है?फ़ोन नहीं किया आपने?"प्रश्नों की बौछार से बेचारे सहम गए।अंदर आकर बैठे तो मैंने कहा,"रुकिए शिवी को उठाता हूँ।"
"नहीं,नहीं दामादजी उसे सोने दीजिये, बस जरा देख लूँ उसे। उठकर बात कर लेंगे।"कमरे में आकर उन्होंने शिवी के सर पर हाथ फेरा और बाहर कमरे में आ गए।"मैं यही आराम करता हूँ,आप भी सो जाइए।"
मैं भी जाकर सो गया।दस बजे शिवी ने उठाया,"सुनो पापा आये थे क्या?आपने उठाया क्यों नहीं?"
वह रो रही थी,उसने एक कागज़ थमाया-
"बिटिया,आज शरद पूर्णिमा है।तिथि के अनुसार आज तेरा जन्मदिन है तो सोचा तुम्हें देख लूँ।तुम्हारे लिए तोहफ़े भी लाया था।तुम्हारी नींद खराब करने का मन नहीं हुआ सो नहीं उठाया।दामादजी भी थके थे सो बता नहीं पाया कि बारह बजे वापसी भी है।बस तुम्हें देख लिया अब चलता हूँ।ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद।"
मेज़ पर इमली की गोलियाँ,आलू के पापड़,अनारदाना ,सत्तू का पैकेट,बिरचुन की गोलियाँ रखी हुई थी।
"दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर जन्मदिन की बधाई देने बस पापा ही आ सकते है।मुझे तो याद भी नहीं था।"शिवी के आँसू रुक नहीं रहे थे और मैं आत्मग्लानि से भर गया था।
"चलो बस स्टैंड,पापा अभी मिल जाएंगे।"गाड़ी की चाबी उठा नीचे की ओर चल दिया।
©डॉ.श्वेता प्रकाश कुकरेजा
जून 2022
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भावनाओं से ओतप्रोत उम्दा लघुकथा। सचमुच पिता ऐसे ही होते हैं। उनके त्याग की गाथा शब्दों में जितनी दफ़ा लिखा जाए कुछ न कुछ अधूरा रहेगा।
भावनाओं से ओतप्रोत उम्दा लघुकथा। सचमुच पिता ऐसे ही होते हैं। उनके त्याग की गाथा शब्दों में जितनी दफ़ा लिखा जाए कुछ न कुछ अधूरा रहेगा।
प्यारी रचना
शुक्रिया💜
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