सचिन मेज पर औंधे मुँह पड़ा था। मन का अंधकार कमरे में जल रही ट्यूबलाइट की रोशनी पर जोर जमा रहा था। वह और रोना चाहता था लेकिन बंद आँखों से गरम पानी की नदी रुक कर रुखसारों पर जम चुकी थी। शरीर सुन्न पड़ रहा था लेकिन दिलो दिमाग में तूफान की लहरें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। लक्ष्य की कही बातें कानों में अभी भी गूँज रहीं थीं। कुछ कहना चाहता था अपने दिल से, लेकिन होंठों पर अप्रत्यक्ष धागे की सिलाई अपना कब्जा जमाएं थी। तभी यादों का एक सैलाब आया और उसे बहा ले गया अठारह साल पहले की दुनिया में।
वही तो वक़्त था जब उसे पहली दफा या कहें शायद पहली दफा अपना असल व्यक्तित्व समझ आया था। बारह साल के सचिन को पहली बार अहसास हुआ था कि जो वह दिख रहा है शायद उसकी आत्मा उससे अलग है। उसे लड़कों के साथ खेलने और घूमने में शर्म आने लगी थी। वह सिर्फ उनकी तरफ आकर्षित होता था लेकिन दोस्ताना व्यवहार चाह कर भी नहीं कर पाता था। दोस्त जब उसके कंधे पर हाथ रखते तो वह बहुत असहज हो जाया करता था। दोस्त उसको इस तरह देख उसकी खूब मज़ाक बनाया करते। कितनी रातें उसने रो रोकर निकाली थी। सबके बीच बेइज्जत महसूस करने लगा था। वहीं लड़कियों के साथ सचिन बहुत सहज और खुश रहता। उनके साथ गिट्टियाँ खेलता कभी लंगड़ी। उसे लड़कियों के साथ खेलते देख माँ ने एक बार गर्म चिमटे से पिटाई की थी। उफ्फ... कितना दर्द हुआ था! मेरी गलती ना होते हुए भी मुझे सजा मिली थी।
मैट्रिक में आते उसे पूरी तरह ज्ञात हो गया था कि असल में उसे परेशानी क्या है? हाँ... परेशानी ही तो क्योंकि सही अर्थ तो उसे पता ही नहीं था जब। लेकिन वह खुश था क्योंकि किशोरावस्था ही तो वह समय होता है जब लड़का लड़की एक दूसरे की तरफ आकर्षित होते हैं। और घरवालों की साफ़ हिदायत है लड़की/लड़का एक दूसरे से दूर रहें क्योंकि यही वक़्त होता है जीवन को सुधारने और बिगाड़ने का। लेकिन मैं बहुत खुश था क्योंकि मेरे चारों ओर तो लड़के ही लड़के होते थें। लेकिन हाँ, मैं किसी से अपने प्यार का इजहार नहीं कर सकता था।
दसवीं की परीक्षा के कुछ दिन पहले निर्णय लिया कि माँ को सब बताऊँगा। अपनी समझ के टूटे-फूटे शब्दों में सब कह डाला था। लेकिन मेरी माँ कितनी भोली थी कुछ समझी ही नहीं। मज़ाक समझ कर एक छोटी सी चपत मेरे गालों पर लगायी और बोली पढ़ ले अच्छे से परीक्षा नजदीक है। एक साल और ऐसे ही गुजर गया लेकिन अब मुझे घुटन होने लगी थी इस दोहरे जीवन से। मैं उड़ना चाहता था। मुझे मेरे कपड़े अच्छे नहीं लगते थे माँ की चुन्नी की झालर मुझे बहुत पसंद थी। चुपके चुपके चुन्नी को सर पर रख शरमाया करता था। लेकिन एक दिन उसकी छिपा छिपी वाली खुशी भी काफूर हो गई। अखवार पढ़ते हुए पापा की तल्ख आवाज़ दरवाजे को चीरते हुए उसके कानों के पर्दों से टकरा रही थी। वह ख़बर पढ़ते हुए बोल रहे थे - ये आजकल के लड़के और लड़कियों ने क्या नया नाटक शुरू किया है। देखों तो कैसी ख़बर छपी है...? इस लड़के को लड़के से प्यार है। कल कोई लड़की कहेगी मैं तो लड़की से ही शादी करुँगी। हूँ... मेरे घर ऐसी औलाद पैदा हो जाती तो डंडे से कूट-कूट कर सारी अक्ल ठीक कर देता। दादी की आवाज पीछे से आ रही थी - अरे, लल्ला यों तो कोई बीमारी लगे मेंने। इलाज करन की जरूरत लगे। आगे सुन पाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। पापा के जो आखिरी शब्द मेरे कानों में पड़े वो थे "ऐसी औलाद को तो फावड़े से काट कर दफना देना चाहिए।"
उसके बाद सचिन ने अपने मन के सारे खिड़की दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर लिए। खुद को समझाने लगा, सच ही कह रही थी दादी... बीमारी ही तो है। हो जाऊँगा शायद ठीक एक दिन। उस दिन आखिरी बार अपने आसुओं को उसने आँखों से बहाया था।
घुटते मन के साथ आगे की पढ़ाई पूरी करके नौकरी के लिए शहर आ गया। अब समय के साथ ज़माना थोड़ा बदल गया था। सचिन भी समलैंगिक रिश्तों को अच्छे से समझने लगा था। शहर का महौल उसके जैसों के लिए थोड़ा नर्म था। लेकिन खुद को कभी इसके लिए तैयार नहीं पाया था। नौकरी करते हुए ही उसकी मुलाकात लक्ष्य से हुई। खुशमिज़ाज लक्ष्य के साथ रहकर सचिन के जीवन की उमंग लौट आयी थी। लेकिन आत्मा के भावों को अभी भी उसने सख्त खोल में बंद किया था। जिसे खोलने की हिम्मत वह आज भी नहीं कर पाता था। पिता की कहीं बातें उसके कानों में आज भी गूंज उठती थी और बेचारी माँ का चेहरा आँखों के सामने घूमने लगता था।
लक्ष्य को धीरे-धीरे सचिन के बारे में जानकारी होने लगी थी। अपने अच्छे दोस्त के दिल का हाल लक्ष्य बिन कहे ही समझने लगा था। कई बार कोशिश की उसने सचिन से इस बारे में बात करने की लेकिन वह हमेशा टाल जाता। सच तो यह था कि सचिन खुद इसे कबूल नहीं करना चाहता था। किशोरावस्था का डर उसके मन पर पूरी तरह हावी था। लेकिन लक्ष्य का स्नेह जब उसे दुलारता था एक सुकून मिलता था। लगता था जैसे कोई है अपना साथ खड़े होने के लिए।
आज शाम भी लक्ष्य यही बात कर रहा था और मैं हमेशा की तरह टालते की कोशिश कर रहा था। लेकिन आज पता नहीं लक्ष्य किस मूड में था। वह मानने को तैयार ही ना था। बार बार कहे जा रहा था सचिन तू सच को कबूल क्यूँ नहीं कर लेता? तू अपनी आत्मा को आजाद कर दे। खुद को इतना मत सजा दे। मैं तेरा दोस्त हूँ और सब समझ रहा हूँ। तू भी एक बार कबूल तो कर। देख फिर सब बदल जाएगा। मेज पर हाथ पटक कर मैंने कहा - लक्ष्य, आखिर क्या सुनना चाहते हो??? मैं जो दिख रहा हूँ वही हूँ। प्लीज, मुझे परेशान करना बंद करो। और नहीं कर सकते तो चले जाओ यहाँ से.....!
लक्ष्य चला गया उसने जाते जाते जो कहा वह सचिन को बेचैन कर गया। उसने कहा था “यदि आपके पास खुद को सच बताने की हिम्मत नहीं है, तो निश्चित रूप से आप अपने बारे में दूसरे किसी को भी सच नहीं बता सकते।" इसलिए बेहतर है पहले तू खुद को सच बताए। उसके कहे शब्द पापा के कहे शब्दों के जैसे कानों में गूँज रहें हैं। लेकिन लक्ष्य के कहे शब्दों से हिम्मत और खुशी मिल रही है। वह उठा कमरे की ट्यूब लाइट के जैसे मन का दीपक जलाया। कुछ निश्चय किया आईने के सामने खड़े होकर खुद को सच बताया। चेहरे पर आयी मुस्कान आज झूठी नहीं थी। मन ही मन मुस्करा कर बोला लक्ष्य के शब्दों ने पापा के शब्दों को हरा दिया। और जोर से बोला, अब मैं अपनी लड़ाई लडूँगा बिन लड़े हार नहीं मानूँगा।
अब अंधेरी रात के बाद सूरज बाहर आने के लिए घने बादलों से ज़िद करने के लिए तैयार था।
स्वरचित
चारु चौहान
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Awesome di😍
Thank you dear
Nice 👍
Thanks @Vinita ji
Nice
Very nice
बहुत संवेदनशील विषय को शब्द और भाव दिए हैं तुमनें
शुक्रिया सभी पाठकों का 🙏
बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना..! एक अनछुआ विषय..!
मर्मस्पर्शी रचना
आभार 🙏
Best one. Amazing story.
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