खोया नहीं, खो कर पाया उन्हें।

यह कहानी एक युद्ध विधवा की मानसिक और भावनात्मक यात्रा को दर्शाती है — जो प्रेम, वियोग और स्मृति की गहराइयों को छूती है। तो सुनिए, दिल को छू लेने वाली, सच्ची घटना पर आधारित इस कहानी को।

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Virender Siwach
Virender Siwach 25 Jul, 2025 | 1 min read

ना जाने क्या था उनकी बातों में...वो जब भी छुट्टी पर आके जाते, एक अधूरापन मेरे भीतर छोड़ जाते। और मैं पगली सी, उसी अधूरेपन के साथ खेलती और उसे सपनों में पालती रहती। यादों की नर्म बाहों में लिपटी उन्हें याद करती रहती। उनकी हर बात में, सुबह-सी ताज़गी होती थी - शबनम की बूंदों की तरह सच्ची, पर अस्थायी और अधूरी। मेरे पति, यूँ तो बड़ी क़द काठी के, एक जाँबाज़ फ़ौज़ी थे। पर मुझे उनमें हमेशा, एक प्यारा सा भोला भाला बच्चा दिखता। इसीलिए मैं उन्हें “गुड्डू” कहकर पुकारती।

तीन साल के वैवाहिक जीवन में, एक बार भी तो उन्होंने मुझसे नाराज़गी नहीं दिखाई थी। आज जब उन्हें याद करती हूं, तो यही बात सबसे ज़्यादा चुभती है। काश... उन्होंने कभी मुझसे झगड़ा किया होता, कोई गिला- शिकवा की होती—तो शायद, मन का बोझ थोड़ा हल्का हो जाता। मुझे अब भी याद है, एक बार मेरी लापरवाही से मेरी सोने की चूड़ियाँ खो गई थीं। अपराधबोध से भरी, मैं, उनके ऑफिस से लौटने का इंतज़ार कर रही थी । और सोच रही थी—वो गुस्सा करेंगे, मुझे डांटेंगे। पर वो तो उससे भी कहीं ज़्यादा खतरनाक निकले। उस दिन उन्होंने मुझे बहुत रुलाया... आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। और वो... , बस मुस्कुरा रहे थे।

मुझे बाहों में भरकर, उन्होंने मेरे माथे को चूमते हुए कहा था—"कोई बात नहीं, चूड़ियाँ तो फिर से बन जाएंगी... लेकिन तुम खो जातीं, तो मैं अपनी जान को कहां से लाता?" उनका ये अंदाज़ मुझ पर भारी पड़ गया था। काश... उस दिन वो मुझे डांट देते।

मेरी ज़िंदगी भी हर फौजी पत्नी की तरह अनिश्चितताओं से भरी थी। इस पल खुशी, अगले ही पल ग़म। जब भी वो छुट्टियों में घर आते, मैं फिर से नई नवेली दुल्हन बन जाती। कई बार तो शक होता की भगवान मुझ पर इतना मेहरबान क्यों है। एक डर... एक अदृश्य भय... दिल के किसी कोने में हमेशा छिपा रहता था। इसलिए जो भी वक्त साथ बिताने को मिलता, मैं उसे यादों की पोटली में बांध लेती—एक ऐसी पोटली जिसमें अचार की तरह हर स्वाद, हर अहसास बंद होता। वो जब-जब छुट्टी आते, मेरे चेहरे पर फुंसियों के निशान उभर आते।

मैं शिकायत करती तो मज़ाक में कहते—"ये मेरी मौजूदगी के निशान हैं, इन्हें किसी डॉक्टर को दिखाने की ज़रूरत नहीं। मेरे जाते ही अपने आप मिट जाएंगे।" और हर बार ऐसा ही होता। धीरे-धीरे फील्ड की नौकरी से उपजी तन्हाइयों की मुझे आदत-सी हो गई थी।

पर जब वो Indian Peace Keeping Force के साथ श्रीलंका गए, तो एक अजीब सी बेचैनी घर करने लगी। देश उनके लिए सबसे ऊपर था। न बूढ़े मां-बाप, न मैं, और न ही उनका दो साल का बेटा—कोई भी उनके फ़र्ज़ के आगे नहीं था।

...और फिर एक दिन हमारी यूनिट की सारी लेडीज़ मेरे घर आ पहुँचीं। उनमें वो भी थीं, जो पहले कभी नहीं आई थीं। उनकी आवाज़ें मेरे कानों में किसी डूबती हुई गूंज की तरह उतर रही थीं। वो मुझे बताने आई थीं कि "मेरा गुड्डू, युद्ध में शहीद हो गया है।"

लेकिन मुझे तो कुछ और ही महसूस हो रहा था... ऐसा लग रहा था जैसे मेरा गुड्डू, मेरी गोद में आकर सो गया हो। मेरे चेहरे पर फिर से वही फुंसियों के निशान उभर आए थे—जो उनकी मौजूदगी में ही आते थे। उनकी मीठी-मीठी बातें फिर से कानों में गूंजने लगी थीं।

मैं उनकी उपस्थिति को महसूस कर रही थी... पर औरतें मेरी प्रतिक्रिया पर हँस रही थीं। कोई ताना मार रही थी—"कैसी औरत है ये! पति के मरने पर एक आँसू तक नहीं गिरा!"

मैं किसे क्या बताती? कैसे कहती उस अनुभव को, जो मैं जी रही थी? वो सब मुझे पागल समझ रही थीं, और मैं उन्हें... जो मुझे समझ नहीं पा रही थीं। 

अब मैं अकेली नहीं थी। मेरा गुड्डू, अब हमेशा के लिए मेरे पास आ गया था।

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