कभी कभी इस व्यस्त जीवन में ये दौर आता है कि खुद से ही एक सवाल पूछा जाता है, आखिर कौन हूं मैं, क्या पहचान है मेरी ?
क्या सच में जो भी जिया वो सच था या सपना। इन्ही बातों को खुद से पूछते हुए मन कई बार अनेक जवाब देता है।
ऐसे ही कुछ जवाब मैंने भी लिए और समझे।
उन्हीं को समझ आज कविता बना लिख रहीं हूं मैं।
शीर्षक - खुद में एक पहेली हूं!
खुद में एक पहेली हूं मैं
अलबेली ही सही खुद की ही सहेली हूं मैं।
कभी माली बनकर बगीचे को समाहलती हूं।
कभी खुद ही फूल बनकर उस बगीचे में महकती हूं।
कर्तव्य और अधिकारों की एक अबूझ पहेली हूं मैं,
कभी मां, कभी पत्नी कभी सहेली हूं मैं।
कभी चहकती चिड़िया बनकर बाबुल के आंगन में
कभी बन जाती कोयल मां के आंचल में।
उगती सूरज की जैसे पहली किरण हूं मैं
कभी बिटिया,बहना कभी सहेली हूं मैं।
कभी बनकर शिक्षिका,पाठ पढ़ाती हूं ।
कभी बनकर समाज सेविका, राह दिखाती हूं।
किंतु बनकर कवि सबसे संतुष्ट हूं मैं
भावनाओं को सजाकर लिखती हूं मैं।
कभी कलम,कभी शब्द कभी अभिव्यक्ति हूं मैं।
बस एक उन्मुक्त और स्वच्छंद कवयित्री हूं मैं।
धन्यवाद।
लेखिका : विनीता सिंह तोमर
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