उठाती हूं जब जब-जब कलम
तुम्हें करीब पाती हूं ।
लिखती हूं जब - जब मैं नज्म ,
तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।
स्याही से अकसर अपने जज्बात भिंगोती हूं ,
जब-जब जब तुम जगे मुझ में ,
शब्दों से तुम्हें छू लेती हूं ।
लगती हूं तुम्हारे गले से ,
तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।
हर ठहरे हुए लम्हे से
होकर मैं गुजरती हूं ,
राहें बदल भी लूं जो मै
तुम से ही आ टकराती हूं ।
पल भर का ये मिलन ,
है बड़ी इसमें जलन ।
जलने का मजा मैं लेती हूं ,
जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,
जब - जब मैं जलती हूं ।
है यादों के शहर में ,
अक्सर मेरा आना - जाना ।
हर मोड़, हर नुक्कड़ पर ,
लिखा तेरा- मेरा अफसाना ।
हर अफसाने, हर किरदार में,
जिक्र है तुम्हारा ।
ज़िक्र ये होठों पर ठहर जाता है ,
जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा,
जब - जब नाम तुम्हारा आता है ।
एहसासों से बना ,
एक घर है पुराना ।
चारों तरफ फैली धूल में,
तेरी उंगलियों के निशान ढूंढना ।
छूकर इन निशानों को,
हाथ तेरा मै थाम लेती हूं,
जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,
जब - जब हाथ तेरा मै थामती हूं।
कुछ अधूरी ख्वाहिशें हैं ,
मेरे तन पे लिखी ।
पढ़ ले उन्हें जो ,
वो नजर मैं ढूंढती हूं ।
पूरी करें जो यह अधूरी इबारतें
वो अक्षर मैं ढूंढती हूं ।
कभी गालों के तिल से
कभी मेरे सीने में धड़कते
तेरे दिल से ,
मैं सवाल पूछती हूं ।
जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,
जब-जब जवाब मै ढूंढती हूं ।
स्याही से अक्सर
अपने जज्बात भिगोती हूं ,
जब-जब तुम जगे मुझमें ,
शब्दों से तुम्हें छू लेती हूं ।
लगती हूं तुम्हारे गले से ,
तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।
उठाती हूं जब - जब कलम ,
तुम्हें करीब पाती हूं।
लिखती हूं जब - जब मैं नज़्म,
तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं।
रचना - तुलिका दास ।
#फरवरी की यादें
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