सबक खूब सिखाया प्रकृति ने हमें
देती रही वह मुफ्त ऑक्सीजन कदर नहीं की हमने
प्राण वायु पौधे हमें देते रहें ,
पर प्राण पौधों के ही हमने छीन लिए।
छोड़कर प्रकृति की गोद ,
ईटों के जंगल में हम रहने लगे
हर सुख हर सुविधा है घर में ,
चीजें भरी पड़ी है घर में
पर जगह नहीं एक पौधे के लिए
कभी बारिश, कभी धूप ,
कभी जगह की कमी का रोना रोते रहे
झूठे वो आंसू , आज सच में है रुला रहे ।
कभी धर्म के नाम पर ,
कभी बेटों की चाह में आबादी हम बढ़ाते रहे
देकर जरूरतों का नाम पेड़ हम काटते रहे
दर्द वो पेड़ अपना कह सकते नहीं ,
इसलिए उनके दर्द को समझने की जरूरत नहीं
निष्ठुरता हमारी , हम तक लौट कर आई है ,
तभी तो सांस सांस पर बन आई है ,
हैं अब भी समय ,
संभल जाओ ! ,
कंक्रीट के जंगल में पौधे फिर लगाओ
बहने दो प्राण वायु आक्सीजन को
,लौटा लाओ रुठी मां प्रकृति को ।
रचना - तुलिका दास
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.