पुस्तक समीक्षा

ये एक पुस्तक समीक्षा है ,पुस्तक लगभग एक साल पहले पाठको को समर्पित की गयी थी ,एमेजॉन पर भी उपलब्ध है । एक पाठक की दृष्टि से मैनें इसकी समीक्षा की है ।

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Sonnu Lamba
Sonnu Lamba 21 Jul, 2021 | 1 min read
Life Review Book Story Novel

किताब का नामः मैटीरियलहोबे..

लेखक का नामः  उज़बक

प्रकाशन : शब्दयोग प्रकाशन

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सबसे पहली बात ये कि किताब के साथ एक पाठक का सफर पूरा हुआ...और कहानी को जब भी छोडा़ गया...जहां भी छोडा़ गया ...ये उत्सुकता हमेशा बनी रही कि आगे क्या होगा...आखिर और क्या लिखा होगा...अनुमान भी सही नहीं हुए...इतने मोंड किताब के मुख्य पात्र अरूण के जीवन में आये कि अनुमान से बाहर रहे...अतः कहानी ने बोर नही होने दिया...और ये किसी किताब की पहली जीत होती है कि उसे पढ़ने वाला उससे बोर ना हो जायें..।

समीक्षक नही हूं.. इसलिए जो भी लिखूंगी एक पाठक की दृष्टि से ही...और शायद लिखने का साहस भी इसीलिए ही करने जा रही हूं...।।

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मैं अक्सर सोचा करती हूं कि जो लोग सफल हो जाते हैं ..उनकी कहानी "सक्सेस स्टोरी'" बन जाती है लेकिन जो लोग सफल नही हो पाते उनकी कहानी का क्या...? कहानी तो उनकी भी होती है ना....!

हां..इस सवाल का प्रत्यक्ष ..अप्रत्यक्ष जबाब अरूण की कहानी में मिलता है , जो लोग असफल होते जाते हैं ...उनकी कहानियां उपन्यास बन जाती हैं..।

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कहानी में अरूण अपनो की अपेक्षाओं और सामाजिक उपेक्षाओं का शिकार होते हुए परिस्थितियों के हाथो की कठपुतली हो जाते हैं.....बार बार मिली असफलताओं से उनके भीतर जो कुंठाये जन्म लेती है...उनको ढा़पने के लिए बुरी आदतो का शिकार भी हो जाते हैं...चारित्रिक कमजोरियों से भी दो चार होते हैं....और हमेशा नैतिक और अनैतिक के मानसिक द्वन्द में फंसे रहते हैं..."

लिहाजा अरूण और उसी का प्रतिरूप उसी का आत्मारूपी अरूण हमेशा गंभीर संवाद में लिप्त रहते हैं जो उसे दुत्कारता है..चेताता हैं..और फिर भी अरूण से हार मान कर बार बार अलग हो जाता है...।

इसलिए अरूण का खुद से ही आत्मालाप एक स्थायी भाव है ...किताब का...।"

अरूण एक ऐसा पात्र है ...जिससे शुरूआत में प्यार होता है...फिर उस पर करूणा आती है...फिर उससे नफरत भी होती है ...(जब वो दीपिका और छाया के बारे में अपनी मंशा जाहिर करते है..) और धीरे धीरे पाठक उनके प्रति भावनाशून्य हो जाता है ..और अंत तक आते आते चित से उनकी सारी मलिनता धुल जाती है और ऐसा लगता है जीवन में सभी कठपुतली होते हैं ...सब कुछ प्रकृति में योजनाबद्ध तरीके से होता है...मिलना ..बिछड़ना और निर्मोही या निर्विकार हो जाना...।


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लेखक ने अरूण के माध्यम से पुरूष मन के एक एक कोने को उघाड़ देने का साहस किया है ...उनके चिंतन..उनकी कुंठाएं..उनके डर...उनकी हताशायें...उनका पौरूष और स्त्रियों के प्रति उनकी समय समय पर उपजी सोच...या संभावित सोच.....अन्य पुरूष पात्रो के संवाद और उनके प्रति अरूण के चिंतन से ये पक्ष बहुत ही मजबूत होके उभरा है...""

लेकिन जहां भी अरूण ने स्त्री पात्रो के मन की थाह लेने की कोशिश की ..वहां कुछ सवाल ही तैरते नजर आए...वे उनके मन को जान ही ना सके.."

स्त्री पात्रों के मन का रहस्योद्घाटन उन्ही के खुद के संवादो में थोडा बहुत हुआ है...उसमें भी उनका समसमायिक क्रियान्वन पक्ष ही उभरा हैं....मानसिक द्वन्द या पक्ष नहीं...और ये शायद इसलिए भी , कहानी अरूण के सापेक्ष में ही रची बसी हैं....वे क्या करते हैं...वे क्या सोचते हैं..उन्हे कैसा लगता है...आदि आदि..।

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कहानी में लेखक बने अरूण को जिस तरह अपनी पहली किताब को ही पूर्ण बना देने की बैचेनी है...उसी तरह लेखक को भी इस किताब को सुदृढता से स्थापित करने की ललक ...साफ दिखती है...इसलिए इस उपन्यास में हर भाव को लिखने की कोशिश की गयी जो सफल भी हुई है..भाषा बहुत ही सरल और जानी पहचानी हैं....कहीं से कुछ भी क्लिष्ट नही...कईं नये शब्द भी दिखे..(जैसे...हनक और हतचेतन ) 

और छोटी छोटीे सामान्य बाते जिन्हे हम रोजमर्रा में बोलतें हैं..उनका कलात्मक प्रयोग हुआ है...(जैसे मैने दिल्ली नजदीक कर दी तुम्हारें )

बहुत ही सामान्य सी बातें सूक्ति बन कर उभरी हैं...जैसे...

परिवार का होके आदमी केवल अपने परिवार तक ही सिमित रह जाता है..वो किसी ओर के बारे में सोच ही नही पाता..।

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मध्यम वर्गीय परिवार का खाका हुबहु ऐसा ही होता है...वहां सब ऐसे ही बोलते हैं और ऐसे ही तौलते हैं...एक दूसरे को ...पिता ऐसे ही बोलते हैं ...लगभग सभी ...इसलिए वो कभी कडवे नही लगें उनके व्यंग्य पर कभी कभी हंसी भी आ जाती है, जबकि पूरे उपन्यास में हंसने का कोई स्थान ही नही है, पिता का दुनिया से जाना भी कम अखरा क्योंकी वे अरूण से मिलकर अपनी सभी बातें कह पाते हैं और अरूण उनका वात्सल्य पाकर रो लेतें है...इन संवादो ने उनकी जाने की पीडा़ को पाठक के ह्रदय में कम किया है...जाहिर हैं अनकहे की पीडा़ हमेशा ज्यादा होती है...।

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और अंत में ....लिखना वाकई एक अद्भुत प्रक्रिया है...उससे इंसान का चित्त तो शांत होता ही है ...उसे दिशा भी मिलती है ..ये कहानी में लेखक बने बिहारी कहते हैं...।

किताब के लेखक उज़बक भी जानते हैं....और मुझ सहित तमाम वो लोग जानते हैं जो अपने भावो को जरा भी व्यक्त कर पातें है लिखकर ...।

और शायद कोई खुद को पुरी ईमानदारी से लिखे तो ऐसा ही महसूस करेगा.....


""बडा मगरूर मैं भी था, मेरे किरदार को लेकर....

कलम ने जब से मुझे लिखा...तभी से आंखे नीची हैं..।'"

@एक पाठक....सोनू लाम्बा☺

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Sonnu Lamba

sonnulamba

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Charu Chauhan · 3 years ago last edited 3 years ago

    Are wahhh!

  • Deepali sanotia · 3 years ago last edited 3 years ago

    बहुत अच्छी समीक्षा की है अपने, मन कर रहा है आज ही ये किताब पा लूं और पढ़ लूं।

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thank you charu

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thank you deepali ji

  • Ruchika Rai · 3 years ago last edited 3 years ago

    वाह बेहतरीन

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    थैंक्यू

  • ritu jain · 3 years ago last edited 3 years ago

    Such m bahut sunder

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    Thanks dear

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