वो घूरती आँखें जो हर वक़्त आप का पीछा करती है चाहे आप घर में हो , स्कूल में हो कॉलेज में हो, या बाजार में । कहीं न कहीं ये आप से टकरा ही जाती है जैसे ही आप को ये महसूस होती है आपके अन्दर का डर काँप उठता है। हर बार बस इसी डर से हमें रूबरू होना पड़ता है। यही सवाल जेहन में चलता रहता है क्या अब भी वो मेरा पीछा कर रही है ? क्या अब भी मुझे देख रही है ?
अचानक ही हम खुद को एक कैद में जकड़ा महसूस करने लगते है।
क्यूँ हो जाते है इतना बेबस ?
इस सवाल का जबाब मुझे आजतक समझ में नहीं आया ।
बुजुर्गो के मुँह से अक्सर एक ही बात सुनने में आती है जमाना बदल गया है |
और सच भी है जमाना बदल गया उसके साथ ही लोगो की इंसानियत भी बदल गयी है। हम कितना भी बदल जाये कितने भी आगे बढ़ जाये पर जो ये दिन प्रतिदिन असुरक्षित माहौल बनता जा रहा है वो हमें दो कदम पीछे ही ले आता है।
बाहर का माहौल ठीक नहीं है तो अब हम हर काम घर में बैठे तो नहीं कर सकते|
ठीक है ना जाओ घर के बाहर पर क्या गारंटी है की घर में रहने पर भी आप किसी की घूरती निगाहों का शिकार नहीं हो रही।
क्या मानसिकता लेकर ये लोग अपना जीवन जीते है ? इनके मन मस्तिष्क में क्या खेल चल रहा होता है जो इनको राह चलते हुए अजनबियों को ऐसी नजरोंखने के लिए मजबूर करता है ।
क्या कोई भी योग , ध्यान, पूजा, यज्ञ इनकी सोच को नहीं बदल सकता ? क्या कोई भी एसा मार्ग नहीं है जो इनकी सोयी हुई इंसानियत को जगा सके ?
ये बात सच है की जब भी ऐसे कोई हालात बने तो अपनी आवाज उठानी चाहिए|
पर कितनों के लिए ? आज हर दूसरा व्यक्ति इसी मानसिकता के साथ जी रहा है ।
तभी तो आज न यूवा पीढ़ी सुरक्षित है न ही बचपन।
हर दिन ही न्यूज़ पेपर की खबरें दिल दहलाने वाली होती है खासतौर पे बच्चो के साथ हो रहे हादसे जिन मासूमों ने अभी तक इस दुनिया में कुछ देखा भी नही उनको भी आज इस डर का सामना करना पड़ रहा है । हमारे आसपास की होने वाली इन गतिविधियों ने आज हर किसी की सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया हर बार घर से बाहर निकलने के पहले दो पल के लिए हम सोचने के लिए मजबूर हो जाते है की क्या में घर के बाहर सुरक्षित रहूगी ? क्या बच्चे अकेले सुरक्षित रहेंगे ?
फिर भी हम रोज अपने काम पर निकलते है कुछ अपने चेहरे को घूरती आँखों से बचाकर , कुछ इन आँखों को नजरअंदाज कर ।
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