चाँद सी बिटिया माँगी थी बाबा ने,
सूरज में जली साँवली गोद आयी,
हाथ सदा उसके रीते ही रहते थे,
उसकी साँवली सूरतिया किसी को न भायी।
क्रीम,उबटन सब लगाया जाता था उसको,
चमड़ी को उसकी कालिख समझा जाता था,
खुद को दुनिया की नज़रों से देखा करती वो,
बना न कभी खुद से उसका कोई नाता था।
चाँद की चाँदनी कभी न बन पाई वो,
सो सूरज की तपिश को अपना लिया ,
ठंडक बिखेरना न आया उसको कभी,
आग में तपाकर खुद को सोना बना ।।
©Dr.Shweta Prakash Kukreja
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