वो अक्सर चुप ही रहती।शायद उन्हें यही सिखाया गया था कि अच्छी औरतें ज्यादा बात नही करती है।सारा दिन एक मशीन की तरह वे काम करती रहती।सासूमाँ की दवाईयाँ या नितिन की फाइल या बच्चों का टिफ़िन सुबह से लेकर वो शाम तक बस काम ही करती रहती।
इस पर भी कभी कभी सासूमाँ कहती, "सारा दिन बहुरिया काम ही क्या करती है....हर काम की तो बाई है ना।" नितिन भी खिसिया लेते ,"तुमको क्या पता पैसे कमाने में कितनी मेहनत लगती है, तुमको तो बस खर्च करना आता है। बच्चे भी न छोड़ते उसे, "छि माँ कैसे रहती हो आप,हमेशा लहसुन की बदबू आती है आपके पास से।"
जब मदर्स दे आता को संग फ़ोटो खिंचवा फेसबुक पर डालते।नितिन भी जब ऑफिस की कपल पार्टी होती तो उसे ले जाते।ऐसा लगता जैसे सब उसे इंसान नहीं एक मूर्ति समझ रहे थे।जब मन आया साथ खड़ा किया वरना होश ही नहीं रहता कि वो ज़िंदा भी है नहीं।
पर वह तब भी कुछ न कहती।घुटती रहती पर अपनी जिम्मेदारियों से कभी पीछे न हटती।कविताएँ लिखने का शौक था उसे।कभी समय मिलता तो अपनी पुरानी डायरी खोल के अपनी रचनाएँ पढ़ती।खुद को कोसती ,सवाल करती पर जवाब में बस खामोशी ही मिलती।
नितिन अब रिटायर हो चुके थे।दोनों बच्चें अपने जीवन में व्यस्त थे।एक दिन उसने बच्चो को फोन लगा घर बुलाया। तीनों बाहर कमरे में थे कि तभी वो सूटकेस ले बाहर आई। बेटा बोला, "माँ कहाँ जाने का प्लान है?" नितिन भी असमंजस में थे।
"पिछले पैंतालीस सालों से आप सब के हिसाब से चलती आ रही हूँ।आप सब की ज़रूरते पूरी करते करते खुद को ही खो बैठी हूँ।आज मेरी खामोशी मुझे जीने नहीं दे रही है।खामोशी का शोर मुझे सोने नही देता,घुटन होती है मुझे।अब मैं आज़ाद होना चाहती हूँ।मैं अपनी सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुकी हूं।अब बस अपने प्रति जो जिम्मेदारी है उसे पूरा करना है।" अपनी बात सहजता से कह दी उसने।
"आप कैसे जा सकती हो माँ, पापा के बारे में तो सोचो।"बेटे ने कहा।
"अगले महीने मेरी डिलीवरी है माँ कैसे होगा सब कुछ?" रोनी सूरत के साथ बेटी बोली।
"सब हो जाएगा तुम सब अब मेरे बिना रह सकते हो।पर अब मैं अपने बिना नहीं रह सकती।जीवन के इस पड़ाव पर अब मैं खुद को खोजना चाहती हूँ, अपने खोये हुए अस्तित्व की आवाज़ सुनना चाहती हूँ।" और वो चल पड़ी,कभी न लौटने के लिए...बिना पीछे मुड़े।
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