स्त्री और श्रृंगार,
जैसे गुलाब के फूल संग मोतियों का हार
पर,,
क्या मोतियों के हार बिना गुलाब का अस्तित्व नहीं?
क्या इससे गुलाब की सुंदरता कम हो जाएगी कहीं?
नहीं,,
गुलाब की सुंदरता हार की मोहताज नहीं,
गुलाब की महक पर किसी का राज नहीं।
गुलाब तो रहकर काँटों संग भी खिलता है,
यही तो उसकी सबसे सर्वश्रेष्ठ भिन्नता है।
फिर,,
क्यों श्रृंगार जरूरी है एक स्त्री के लिए?
क्यों उसे ही आभूषणों की दरकार है?
बिंदी, चूड़ी, बिछिया, पायल क्या बस इन्हीं से स्त्री की पहचान है?
क्या श्रृंगार बिना स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं?
क्या श्रृंगार बिना स्त्री लगती सुंदर नहीं?
श्रृंगार तो बस एक आभूषण समान है,
श्रृंगार नहीं कोई सुंदरता की पहचान है।
वह असल श्रृंगार नहीं जिसमें प्रवलता की हो भावना,
श्रृंगार तो वह सच्चा है जिससे पूर्ण हो हर कामना।
लैक्मे करता स्त्री को वही सच्चा श्रृंगार प्रदान है,
जिससे लगती स्त्री निश्छल और पवित्र समान है।
असली श्रृंगार स्त्री का खुशनुमा सा चेहरा है,
लैक्मे के उत्पादों ने जिसपर छोड़ा अपना असर गहरा है।
संतोषी स्त्री का स्वयं का तेज ही बहुत गहरा है,
उस तेज में चार चाँद लगाने का जिम्मा लैक्मे का ठहरा है।
सादगी से बड़ा स्त्री के लिए कोई श्रृंगार नहीं,
मेकअप संग सादगी का संयोजन सबके बस की बात नहीं।
लैक्मे ने इस नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया है,
तभी तो स्त्री के श्रृंगार को हर उपमा से पृथक पाया है।
✍शिल्पी गोयल(स्वरचित एवं मौलिक)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
अति सुन्दर... सही कहा
बहुत-बहुत शुक्रिया 🙏🙏
Very nice
Thank you
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