कभी कभी कुछ पल ऐसा होता है जब हम अकेले बैठना चाहते हैं, अकेले रहना चाहते हैं किसी की बातें भी अच्छी नहीं लगती हैं।कुछ न ..सुनने को जी चाहता है और न कहने को बस अकेलापन ही सुकून देता है।हर पल बस एक उदासी की चादर सी बिछी होती है।
कोई बोले तो भी न बोले तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता जिंदगी एक बोझ सी लगती है मैं भी ऐसा ही महसुस कर रही हूँ।मैं कहीं खो सी गई हूँ ,क्या जिंदगी का ये पड़ाव ऐसा ही होता है।संध्या अपने आप में कब से इस सवाल से जुझ रही थी।"संध्या कहाँ हो तुम"संजीव ने आवाज़ लगायी।"आई अभी"संध्या ने पति संजीव से कहा।
संध्या ने दो कप चाय बनाई और संजीव के साथ बैठ गई।संध्या आज मौसम अच्छा है चलो दिवाकर जी के घर चलते हैं काफी दिनों से बुला रहें हैं।नहीं मेरा मन नहीं संध्या ने कहा।क्या हो गया है तुम्हें? न मिलती जुलती हो किसी से, न ज्यादा बात करती हो! क्या सोचती रहती हो आजकल तुम ?संजीव ने पुछा।"कुछ भी तो नहीं!मैं ठीक हूँ।
मैं आता हूँ बाहर से थौड़ी देर में...संजीव ने संध्या से कहा। "हम्म"संध्या ने बस हामी भरी वो फिर सोचने लगी,उसे क्या हो गया है वो पुरा दिन बस अकेले अपने आप से जुझती रहती है!वो क्यों नहीं अपनी परेशानी समझ पा रही है।50 साल की हो गई पर आज भी अपनी बात नहीं रख पाती सबके सामने बेटे बहु के पास भी उसे हिचक होती है और यहाँ अकेले और भी ज्यादा परेशान है वो।
जब से उसने नौकरी छौड़ी है तब से हर समय बस अकेलापन उसे खाता ही चला गया है।उसने तो सोचा था,अब पुरा समय वो बच्चों और संजीव को देगी पर अपने आप को तो उसने कहीं खो ही दिया है ये बात अब समझ में आई उसे।बच्चे अब बड़े हो गए हैं उनका खुद का परिवार है संजीव की भी अपनी अलग ही दूनिया है सब दोस्तों के साथ घुमना, टहलना,योगा सब साथ करते हैं, सब अपने आप में वयस्त हैं बस वो ही खाली है अब ।
बेटे बहु के घर बनारस गई वहाँ भी मन न लगा सब अपने आप में वयस्त किसी को फुरसत ही नहीं हमारे लिए।संध्या फिर सोच में डुब गई थी,क्या मैंने नौकरी छौड़ कर गलत की या शायद हाँ कम से कम आठ से दो वो स्कूल में तो समय निकाल देती थी।
सोचा बच्चे बड़े हो गयें हैं अब तो आराम करू थौड़ा समय बच्चों को दूं पर मैं गलत थी अब मेरे बच्चों,पति किसी को मेरे लिए समय ही नहीं है। सच ही तो है जब इन सबको मेरी जरूरत थी तो मैं भी नहीं होती थी।
अरे लाइट क्यों नहीं जलाया अंधेरे में क्यों बैठी हो संजीव ने आकर लाइट जलायी।तुम अभी तक यहीं बैठी हो।क्या हुआ है मुझे तो बोलो अपने आप से जुझकर क्या फायदा।संजीव मैं बहुत अकेलापन महसुस कर रही हूं, किसी को मेरी जरुरत ही नहीं अब मैं बहुत दूर चली गई सबसे संजीव वो जोर जोर से रोने लगी।
संजीव ने उसे बाहों में ले लिया "तुम्हें किसने कहा किसी को अब तुम्हारी जरूरत नहीं"।अभी बुढ़ापे मैं मेरा ख्याल कौन रखेगा, और देखो ये टिकट तुम्हारे बेटे बहु ने भेजा है दो दिन बाद की है सब को तुम्हारी चिंता है बहु ने बोला"माँ यहाँ थी तो बच्चे भी उनकी सुनते थे हर काम समय पर कर लेते थे पापा आप माँ आ जाओ अब बस बहुत दिन हो गए"तुम भी संध्या क्या क्या सोचती रहती हो पता है समय के साथ हर चीज बदल जाती है हमें उसके साथ चलना चाहिए न की मन खराब कर के बैठना चाहिए।
बहु बेटे सबका अपना परिवार है हम सब साथ हैं तो ही खुशी है अकेले में नहीं तुम तो हम सब की जरूरत हो तुम्हारे बिना तो मैं क्या तुम्हारे बच्चे भी कुछ नहीं हैं देखो! कितनी बार फोन किया है उन्होंने संध्या ने फोन देखा सचमुच बच्चों के कितने फोन थे वो फिर संजीव के गले लगकर रोने लगी।
संजीव मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं बहुत अकेली हो गई हूँ, मैं अपने आप को कहीं खोती जा रही हूँ मुझे पता नहीं क्या होता जा रहा है मैं अकेली असहाय सा महसुस कर रही हूँ ऐसा लग रहा है अपने आप से ही कहीं खो न जाऊ मैं?नहीं संध्या ये तुम्हारा डर है इतने साल तुम काम करती रही अब पुरा दिन तुम घर पर रहती हो इस लिए तुम्हें ऐसा लग रहा धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा देखना!बहु जिस हक से तुम्हें बुलाती है! उस हक से तुम भी अपना समझ कर रहो वो भी अपना ही घर है!बस बेटे बहु को टोका टाकी मत करना बच्चे अपनी जिंदगी जिये हम अपनी..हैं न।
दोनों एक दूसरे का सहारा बने रहें बस और क्या चाहिए।हमें जिस तरह उनकी जरूरत है उन्हें भी हमारी है बस थौड़ा समझदारी से चलना हैं और कुछ नहीं।"हाँ आपने सही कहा"मैं बेकार में सोच सोच कर परेशान थी मेरी जरूरत अब किसी को नहीं है मैंने अपने आप को तनाव में डाल दिया था अपने आप को कहीं खो दिया था मैंने,आपने संभाल लिया।
अब चलो जरा फिर से चाय पिला दो इस बुढ़े को संजीव ने हँस कर कहा।बुढ़े होगें आप मैं तो अभी जवान हूँ मेरी उम्र ही क्या है अभी सिर्फ पचास।संध्या रसोई में आ गई।चाय चढ़ाई और सोचने लगी मैं भी कितना सोचने लगी पागल सी एक बार बात मन खोलकर किया होता तो इतने दिन तनाव में नहीं रहती।मैं हँसना,गुनगुनाना सब भुल गई थी जैसे।कितना तनाव पाल लिया था मैंने,बिना मतलब का नहीं अब बस हँसना और हँसाना है।मैंने जो डर बैठा लिया है अपनेआप को खोने का उसे भगाना ही होगा
"कहीं खो न जाऊं मैं"इस डर को भगाना ही होगा।संजीव, बच्चे सब हैं मेरे साथ मैं अब अकेली नहीं परिवार मेरे साथ था और हैं बाकी तो सब बस वहम था मेरा,हाँ वहम ही था जो मुझे अपनेआप से दूर ले जा रहा था जहाँ अपने आप को खो दिया था मैंने, पर अब नहीं। जितनी हमें बच्चों की जरुरत है बच्चों को भी उतनी ही होती है बस आपसी समझ की जरूरत है।
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