कोरे कागज पर अब भाव नहीं उभरते
मौन है अब पीड़ा भी पीड़ा देखकर
जिंदगी के जख्मों से, संकट पग पग
हर पल, हर तरफ बहते अश्कों को
कोई पोछने वाला नहीं, करीबी दूर हैं
ये दुखद एहसास होकर भी मौन है
कचोटता दिल,बहते आँसू फिर भी मौन है
इस बेबसी लाचारी के आलम में
मेघमय पवन बह रही मंद मंद
फुहार फिर आई है समय पर
लेकिन वह उल्लास वह खुशी नहीं
जो मन को भाता था, वह फुहार
जो कभी मन गुदगुदाता था
पावन अलौकिक धरा आज भी है
लेकिन वह पीड़ा,निरंतर जलती चिताओं को देख
मन व्यथित होता है,यह सवाल उठता है
बार बार और हर बार लिखूं तो लिखूं कैसे
इस पीड़ा से कोरे कागज को भरू कैसे
मन में उठते तूफानों को लिखूं या
जलती चिताओं की व्यथा को लिखूं
इसलिए कोरे कागज पर अब भाव नहीं उभरते
हाँ भाव नहीं उभरते।
Comments
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Nice
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