मेरी चाहत नहीं की खुले आसमानों में उड़ जाऊँ
ये भी नहीं चाहत की चिड़ियों सी चहचहाऊँ
पर हम भी तो दिलों से मजबूर हैं
बस चाहत है कूछ पल के लिए ही सही
तेरी आँखों में तेरी साँसों में बस जाऊँ
क्यों आखिर... तुम मुझे क्यों घर का महज सामान समझते हो, बिस्तर पर पलभर के लिए पुचकार, दुलार से...... दिल की तड़प...प्यार के लिए जो तरस है.. मिलती है क्या ? क्यों नहीं समझते मेरी चाहत सुनंदा बिस्तर पर पड़ी अपने कपड़े समेटती, आँसू पोछती,अपनी चाहत मन में दबाती..... स्त्री की दुर्दशा,चाहत को समझने में असमर्थ थी।
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