*प्रकृति के ह्रदय को भेद कर क्या पाओगे -- केवल विनाश*
*पेड़ जो काटे जा रहे फिर खुशियाँ किस पर आस रहे
क्यों तुम हद खो रहे हाँ प्रकृति से मुँह मोड़ रहे
अस्तित्व उसकी मिटा रहे सच है खुद को भुला रहे
विकास नहीं तुम कर रहे अपनों का ही विनाश सेज रहे
कभी तो अंतर्मन में झांको अंतर्मन की बात सुनो
चीख रही धरा भी अब तो उसकी यह चीत्कार सुनो*
प्रकृति के दिए सुंदर उपहारों में से एक बक्सवाहा जंगल आज अपनी सुंदरता पर रो रहा है। उसके ऊपर उठने वाले कुल्हाड़ीयों के डर से। प्रकृति प्रेमियों का दिल कचोट रहा है। क्या हीरो के लिए बक्सवाहा जंगल को तबाह कर देना उचित है? ढाई लाख पेड़ों का काटा जाना कहां तक सही है। आज लोग ऑक्सीजन को तरस रहे और एक तरफ जंगलों को काटने की तैयारी। हीरे जरूरी है या पर्यावरण ?एक सवाल खड़ा होता है। हीरे निकालने के लिए पेड़ काटकर पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचेगा उसकी भरपाई संभव है क्या? एक दिन में पेड़ बड़े नहीं होते सालों लगते हैं ।पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ की भरपाई तो आज तक कर नहीं पाए हम लोग।आज इस दुनिया से जा रहे लोग ऑक्सीजन की कमी से फिर भी सबक लेना जरूरी नहीं। जरूरी है तो हीरा ।
पेड़ काटकर पर्यावरण का भारी नुकसान होना तो तय है लेकिन आने वाली पीढ़ी भी कभी माफ नहीं कर पाएगी क्योंकि जीवों के संकट के साथ साथ आने वाली पीढ़ियों पर भी संकट आना तय है। इस जंगल में तेंदुआ,बारहसिंगा हिरन, मोर, भालू सभी जानवर 2017 तक मौजूद थे। आज इसे नकारा जा रहा कहीं ना कहीं यहाँ भी सियासत का खेल रचाया गया है। वर्तमान समय में आज लोग ऑक्सीजन की समस्याओं से जूझ रहे और जंगल के काटे जाने से सीधा असर पर्यावरण पर पड़ने वाला है।
एक स्वस्थ पेड़ से 230 लीटर प्रतिदिन ऑक्सीजन मिलती है जिसमें 1 दिन में 7 लोगों के ऑक्सीजन की पूर्ति होती है। इतने पेड़ों का कांटा जाना ऑक्सीजन के संकट को और बढ़ावा देना है। जंगल में हीरो का मिलना और सैकड़ों एकड़ में फैले 330000 पेड़ों को काटा जाना या नष्ट करने का सोचना भी पाप है क्योंकि धरा के हृदय को भेदने जैसा होगा। धरा भी रो पड़ेगी अपने बच्चों के दिए इस दर्द से। चित्कार उठेगी वो और धारा की चित्कार सब कुछ बर्बाद कर देती है। जिस तरह आज हम भुगत रहे महामारी में ऑक्सीजन की कमी से।आने वाली पीढ़ियों का हाल और बुरा होगा। अब तो जंगलों का कटना विनाश का बुलावा ही है और बस इतना ही कह सकती हूँ।
*देख न पाया मन भरा, बहुत मिली है हार
जीवन क्या जीये भला, काल की हुई पुकार*
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