फैशन की होड़

Fashion

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rekha jain
rekha jain 05 Jul, 2022 | 1 min read

  फैशन की होड़ युवा पीढ़ी की दौड़

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आज की युवा पीढ़ी आज इतने भोगवादी विचारों से ओत-प्रोत होती जा रही हैऔर उसमें ऐसे खोते जा रहे है। पश्चिम की परंपरा की नकल में अपनी अक्ल लगा रहे हैं।बुरे को अच्छा, अवैध को वैध, अनैतिक को नैतिक,दोष को गुण साबित करना शुरू कर दिया है।

ऐसे भोगवादी वातावरण में जीकर आज युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक व संस्कारित संपदाओं से दूर होती जा रही है। ऐसे में देश में सु संस्कारित जीवन को कैसे बचा पायेंगे?

और समाज का उत्थान अब भला किस प्रकार होगा? ये बहुत ही चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न है। बिना इस प्रश्न का उत्तर ढूंढें बिना देश का कल्याण और उत्थान कैसे होगा?

हमारा देश निरंतर प्रगतिशील और उत्तरोत्तर उत्थान करने वाला देश है इस देश में चरित्र की हर हाल में रक्षा होनी चाहिए। हमारे विद्वानों ने शास्त्रों में कहा भी है कि"धन के नष्ट हो जाने पर भी चरित्र सुरक्षित रह सकता है लेकिन चरित्र नष्ट हो जाने पर सबकुछ नष्ट हो जाता है।"इस बात को युवा पीढ़ी को समझाना है किन्तु वह समझना नहीं चाहती।

यह बहुत ही आश्चर्यजनक तथ्य है कि आज भारत अपने नैतिक मूल्यों और संस्कारों से ही पहचाना जाता रहा है। जहां पश्चिम के लोग सनातनी संस्कृति को अपनाकर खुद को धन्य कर रहे हैं वहीं अज्ञानतावश एक भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग पश्चिम के प्रभाव में सामाजिक और नैतिक पतन की ओर अग्रसर है।लेकिन कपड़े पहनने के ढंग और तौर-तरीकों में पाश्चात्य प्रभाव से शुरू हुआ यह सिलसिला अब भारत की संस्कृति और मौलिकता तक आ पहुंचा है. उल्लेखनीय है कि इन पाश्चात्य रीति-रिवाजों का सबसे ज्यादा प्रभाव देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी पर पड़ा है. वह अब पूरी तरह विदेशी संस्कृति से ओत-प्रोत हो चुकी है।

भारत जैसा देश जो एक लंबे समय तक पश्चिमी राष्ट्र का उपनिवेश रहा है, उसके लिए विदेशी लोगों के आचरण और उनके तरीकों को अपनाना कोई नई बात नहीं है. इसकी ग्रहणशील प्रवृत्ति के कई उदाहरण हम पहले भी देख चुके है।

लेकिन कपड़े पहनने के ढंग औरतौर-तरीकों में पाश्चात्य प्रभाव से शुरू हुआ यह सिलसिला अब भारत की संस्कृति और मौलिकता तक आ पहुंचा है. उल्लेखनीय है कि इन पाश्चात्य रीति-रिवाजों का सबसे ज्यादा प्रभाव देश का भविष्य कही जाने वाली युवा पीढ़ी पर पड़ा है. वह अब पूरी तरह विदेशी संस्कृति से ओत-प्रोत हो चुकी है।

नब्बे के दशक में जब भारत ने सर्वआयामी प्रगति और विकास को उद्देश्य मानते हुए, वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नई आर्थिक नीतियों को अपनाया, इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को धूमधाम से मनाने वाले युवा, अब वैलेंटाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे और फ्रेंडशिप डे जैसे दिनों को मनाना आधुनिक समझते हैं. कुछ समय पहले तक जो दिन युवाओं को भारत के गौरवशाली इतिहास के अवगत करा उनमें नए जोश को प्रवाहित करते थे, आज वह मात्र एक छुट्टी का दिन बनकर रह गए हैं. वहीं दूसरी ओर वैलेंटाइन डे जैसे दिन, जिन्हें पश्चिमी रिवाजों के अनुरूप ग्रहण किया गया, उनका इंतजार युवाओं को साल भर रहता है. भारतीय परंपराओं के अनुसार आज भी प्यार को पर्दे के अंदर की चीज माना जाता है और इन बातों के खुले व सरेआम प्रदर्शन को किसी भी हाल में उचित नही माना जाता है. लेकिन वैलेंटाइन डे मनाने वाले प्रेमी जोड़े इस बात को महत्व ना देते हुए हर वो कार्य करते हैं, जिसे परंपराओं पर विश्वास करने वाले लोग कदापि सहन नहीं कर सकते. इतना ही नहीं युवाओं के लिए प्रेम-रूपी भावनाएं भी मात्र इसी दिन तक सीमित रह गई हैं. एक जमाने पहले लोग अपने प्रेमी के लिए कुछ भी कर गुजरने का दम भरते थे, वहीं अब प्रेम संबंध भी शारीरिक इच्छाओं की बलि चढ़ चुके हैं

इतिहास गवाह है कि भारत नैतिक मूल्यों के उत्कर्ष का नेतृत्व करता रहा है किन्तु मैं देख रही हूं कि वर्तमान समय में ऐसा नहीं हो रहा है। मैंने आज की युवा पीढ़ी को अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त किया है:-


अाधुनिक काल है अौर मची है भागादौडी।

नैतिकता की चादर आज दिखावे ने अोढी ।

मनुष्य चढ रहा है आज स्वारथ की सीढी ।

कर्तव्य को न समझे कभी आज युवा पीढी।


यहां तक कि विदेशों से पर्यटक के तौर पर आने वाले अधिकतर लोग भारतीय संस्कृति से इतना प्रभावित हुए कि वे यहीं के होकर रह गए यह बात यहां तक ही नहीं रूकी उन्होंने हिन्दुत्व की दीक्षा भले ही ग्रहण की हो या नहीं लेकिन वे हमारी संस्कृति के सभी नियमों के मुताबिक आचरण करते हुए देखने को मिल जाएंगें। त्रयकालिक संध्या भारतीय वस्त्र यथा-साड़ी, धोती-कुर्ता, माथे पर टीका एवं गले में माला पहनने में किसी भी प्रकार का हर्ज नहीं महसूस करते बल्कि चौगुनी इच्छाशक्ति एवं उत्साह से लबरेज होते हैं।

यह सब संभव हो सका तो पश्चिमी जगत के भारतीय संस्कृति की ओर जीवन की सरसता की आशापूर्ण निगाहों से ऐसे कई उदाहरण हमारे यहां मौजूद हैं।

इतिहास को विकृत करने के पीछे उन सभी विदेशी ताकतों का सीधा हाथ है जो भारत की सभ्यता एवं संस्कृति को नष्ट करने के लिए वर्तमान एवं पूर्व के समय में पूर्ण रूप से संकल्पित रहे हैं।

भारतीय संस्कृति के साथ यह सब दीर्घकाल से चल रहा है किन्तु यहां की संस्कृति की जड़ें जमीन की अनंत गहराइयों में हैं जिसके कारण आज भी अपने स्वरूप को बरकरार रखने में सक्षम हैं।

भारतीयों में एक अजब सी होड़ इस बात को बढ़ाचढ़ाकर बताने की लगी है कि विदेशों में उच्चतम शिक्षा एवं तकनीकी के साथ-साथ वहां की व्यवस्थाएं सुदृढ़ है।

यह सब भी एक प्रकार से विदेशों की तुलना में हीनता का अनुभव करना है, जबकि हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा अतीत समृध्दिशाली था और वर्तमान भी है वर्तमान में थोड़ी बहुत विषमताएं हैं जो उपनिवेश एवं विभिन्न षड्यंत्रों के कारण के उत्पन्न हुई हैं।

भारत ने विश्व को ज्ञान के अपरिमित कोष से परिचित करवाया किन्तु कभी भी अपने ज्ञान पर अधिकार नहीं जताया जबकि इसके इतर विदेशों ने उसी ज्ञान को सरल भाषा में कहें तो कापी- पेस्ट कर अपने नाम का पेटेंट करवा लिया।

इसके बावजूद भी हम हीन भावना से ग्रस्त होकर पश्चिमी अन्धानुकरण को प्राथमिकता दे रहे हैं जबकि पश्चिमी गतिविधियां एवं कार्यकलाप वहां के वातावरण के हिसाब से है इसके इतर अपनी भारतीय संस्कृति की विशिष्टता रही है कि हमने श्रेष्ठतम सभ्य आचरणों के माध्यम से विश्व को सर्वोत्कृष्ट मार्ग दिखाकर अपनी परिपाटी निर्मित की है।

हम भौतिकवाद की अंधी दौड़ में भ्रमित होकर अपने अस्तित्व को ही खत्म करने के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर सहमत हो रहे हैं, आज हम सब अपनी संस्कृति एवं परम्पराओं की अपनी हठधर्मिता के माध्यम से हत्या किए जा रहे हैं जिसकी निष्पत्ति आगे के समय में अपने को न पहचान पाने के रुप में होगी क्योंकि सभ्यता एवं संस्कृति का विकास एक व्यक्ति नहीं करता बल्कि यह दीर्घकालीन सतत प्रवाह होने वाली एक लम्बी प्रक्रिया होती है।

क्योंकि जिस देश के नागरिकों ने अपनी सभ्यताओं की जड़ों को काटा है,उनका नामोनिशान नहीं रह गया है।

हमारे पास अभी भी समय है कि इस पर हम सभी विचार-विमर्श करें एवं षड्यंत्रपूर्वक हमारे दृष्टिकोणों में घर कर गई हीनता एवं इतिहास के विकृतस्वरुप के कारण अपराधबोध की भावना से ऊपर उठकर स्वचिन्तन कर भारत के गौरव को विश्वपटल पर पुनर्स्थापित करने के लिए प्रतिबध्दता व्यक्त करें!!

वर्तमान समय में भागदौड़ भरी जिंदगी में संस्कारों के लिए किसी के पास वक्त नहीं हैउधर दूसरी तरफ विदेशी महिलाएं भारत के पहनावा साड़ी को समय के साथ पसंद करने लगी है। भारतीय संस्कृति के अपनाने में धीरे धीरे कदम बढ़ा रही है।एक पत्नी व्रत निभाने के लिए भारतीय पुरूषों से विवाह करने को लालायित रहती है। भारतीय रीति रिवाजों को अपना रहीं हैं।धर्म की ओर आगे बढ़ रही है इसका साक्षात उदाहरण इस्कान मंदिर में देखने को मिलता हैइस के विपरीत भारतीय महिलाएं विदेशी महिलाएं के विपरित हो रही है वो अपने धर्म रीति रिवाजों को जोड़ती जा रही है । आज की आधुनिक महिला यह चाहती है कि हमारा पति भी हमारी लंबी आयु के लिए करवा चौथ का व्रत हमारे लिए रखे।वो पश्चिम का अंधानुकरण करने में अपनी शान समझती है।

ना केवल युवा पीढ़ी बल्कि आज कल के अभिभावक भी पश्चिमी अंधानुकरण को अपनाने में शान समझते हैं। मेरे बच्चे विदेश में रहते हैं विदेशी बहू लाते हैं और बुढ़ापे में जब अभिभावक कभी बीमार हो जाते हैं तो वहीं बेटा बहूं देखने भी नहीं आते और वृद्धाश्रम में भेज देते हैं 

अभिभावक एक ऐसा शब्द है जिसके उच्चारण से माँ, 

पिताजी का चेहरा याद आ जाता है। जब अपने अभिभावक 

याद आते हैं तो कभी मुस्कान, कभी चिंता और कभी कोई 

और भाव चेहरे पर खुद-ब-खुद आ जाता है। 

किन्तु कहीं भी उपेक्षा का भाव लेशमात्र 

भी नहीं रहता है।परंतु जब हम आज के 

अभिभावक वर्ग की बात करते है तो 85% 

अभिभावकों को उनके बच्चों की चिंता में 

घुलते हुए देख मन व्यथित हो जाता है। 

बच्चों की चिंता एक स्वाभाविक आचरण 

है। जो आदि काल से चला आ रहा है, 

परंतु जब बात उनके प्रति चिंता और अपने 

अभिभावक होने व कर्तव्य के परिणाम की आती है तो कहीं ना कहीं 

उपेक्षा का पलड़ा अधिक भारी मिलता है। 

अब बात करते हैं उपेक्षित अभिभावक वर्ग होने के कारणों पर। 

मां बाप और बच्चे तो पहले भी थे परंतु तब अभिभावक के 

प्रति श्रद्धा भाव था। उदाहरणस्वरूप, एक थके हारे पिता के काम से 

लौटने पर, पुत्र व पुत्री, पानी, तौलिया वगैरह लेकर तैयार रहते थे कि

पिताजी घर लौटे हैं। इन सब में स्वतः अनुशासन था संस्कार था किन्तु अब

ये सब पश्चिम अंधानुकरण का ही परिणाम है।आज की युवा पीढ़ी नियम संयम में नहीं बंधना चाहती।

फैशन की अंधी दौड़ में युवा पीढ़ी ऐसे भाग रही है उसे यह भी मान नहीं रहता कि उसके कितने अंग घंटे है और कितने खुले।लाज, शर्म,हया, करुणा,ममता स्त्री का गहना होता था शृंगार होता था उसकी कैसे आज धज्जियां उड़ रही है मैंने अपनी स्वरचित कविता के माध्यम से व्यक्त किया:-


फैशन की होड़ में 

दिखा रही अंग।

पहले जैसा है नहीं अब जीने का ढंग।

अंग-प्रदर्शन में लगे उनका मन मलंग।

फटी जीन्स पहनकर दिखाती अपना रंग।

अपने मन में सोचती मैं हूं कितनी चंग।

फटे कपड़ो मे देख यूं हम तो रह गये दंग।

लाज ,शर्म स्त्री का गहना 

इसे ना रखती संग।

फैशन करने की चाह में 

हो रही सब बेरंग।

फैशन की आग में दिखा

रही सब अंग।

वैसे तो नारियों ने जीत ली है सारी जंग।

किंतु जब तक ना पहेनेगी

लाज शर्म का गहना

तब तक दिखाती रहेगी 

अपने अंग-प्रत्यंग।


केवल अंग प्रदर्शन से और अंग्रेजी बोलकर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को अपनाकर स्वयं को आधुनिक दिखाना चाहते हैं तो निश्चित ही हम आधुनिकता का अर्थ नही जानते हैं केवल आधुनिकता की भेड़ चाल में शामिल हैं यदि वास्तव में हम फैशन की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं तो हमें अपनी वैचारिक संकीर्णता से ऊपर उठकर देखना होगा।अपनी सोच कर विस्तार देना होगा। क्योंकि आधुनिकता आंतरिक परिवर्तन से आती है बाहृय प्रदर्शन से नहीं। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा खान-पान,रहन-सहन, वेशभूषा आदि माध्यम से हम फैशन की दौड़ में भाग तो सकते हैं लेकिन आधुनिक नहीं बन सकते।इस बाहृय बदलाव से भौतिक विकास का भ्रम तो संभव है किन्तु उन्नति नहीं हो सकती न किसी देश की और ना हमारी।

आज आधुनिकता की होड़ में युवतियां अपने पति को मानसिक उत्पीड़न दे रही है और प्रतिशोध की ज्वाला को बढ़ावा दे रही है यह ज्वाला कब और कैसे बुझेगी। बहुत ही चिंतनीय प्रश्न है।यह ज्वाला पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाएगी और इसकी लपटों में समाज के निर्दोष जन झुलसते रहेगें।क्या अनैतिकता को फैशन का नाम देना उचित है? क्या स्वयं को पुरूष से बढ़कर दिखाने के लिए अपने कर्तव्य से विमुख होना उचित है?इस दिशा में चिंतन की आवश्यकता है।

यदि कोई युवती आंचल ओढ़कर रहती है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह आधुनिक या पढ़ीलिखी नहीं है वरन् वो उसकी शालीनता को प्रदर्शित करता है।नर और नारीत्व के मान सम्मान तथा स्वाभिमान के दायरों को आज के युग में पूर्ण रूप से समझने की जरूरत है। संस्कारों को पूर्ण रूप से फलीभूत करने में नारीत्व का बहुत बड़ा योगदान है।

वर्तमान समय में भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण विश्व मानवता एवं बन्धुत्व का भविष्य देखता है,क्योंकि पश्चिमी जगत ने भौतिकवाद की चरम अवस्था पर जाकर यह जान लिया है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य महज भौतिक संसाधनों की आपूर्ति के माध्यम से भौतिक सुखों की प्राप्ति ही नहीं है बल्कि अध्यात्मिकता को अपनाकर मनुष्यत्व व देवत्व की अनुभूति के माध्यम से आत्मिक संतुष्टि प्राप्त करने का बोध है।

इसी का उदाहरण है कि विदेशी हमारे भारतीय धर्म-दर्शन परम्परा एवं संस्कृति को जानने एवं अपनाने के लिए उत्सुक है।

हम आज इक्कीसवीं सदी में जीते हुए युवा पीढ़ी को आगे बढ़ते हुए देखते हैं।आज हमारी दृष्टि जिसप्रकार देश समाज और विश्व विकास में,उनकी बढ़ थी सहभागिता पर गर्व 

करती है किन्तु युग के साथ साथ चिंतन में आया हुआ बदलाव हमारे संस्कारों की जड़ों को खोखला कर रही है।


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डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद

स्वरचित व मौलिक रचना 





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