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rekha jain
rekha jain 05 Jul, 2022 | 1 min read

रोमन लिपि देवनागरी लिपि को चुनौतियां


"देवनागरी लिपि को रोमन लिपि से मिली 

चुनौतियां"


इंटरनेट और मोबाइल द्वारा रोमन लिपि में हिंदी लिखने का चलन जब से दिखाई पड़ने लगा है। तब से लिखित हिंदी की यह समस्या यद्यपि अभी अपने आरम्भिक चरण में है किन्तु चिंताजनक बात यह है कि रोमन लिपि का उपयोग हिंदी लिखने की शैली पर बुरी तरह पड़ रहा है। युवा पीढ़ी में तेज़ी के साथ प्रसारित हो रही है। यदि इस दिशा में सामाजिक, व्यापारिक तथा प्रौद्यौगिकी स्तर पर पहल नहीं की गई तो यह संभावना प्रतीत हो रही है कि भविष्य में देवनागरी लिपि के संग रोमन लिपि की हिंदी अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दे।हिंदी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता ने तथा इंटरनेट तथा एसएमएस के बढ़ते जाल ने हिंदी की देवनागरी लिपि को चुनौती देना आरम्भ कर दिया है। यह चुनौती है रोमन लिपि में हिंदी लिखने की प्रक्रिया की शुरूआतआखिरकार भाषा की जीवंतता उसकी उपयोगिता पर भी निर्भर करती है।


सामाजिक स्तर पर पहल के लिए देवनागरी लिपि के प्रयोग, प्रचार तथा प्रसार के लिए समाज के प्रत्येक स्तर पर जागरूकता लाई जाए। प्रसंगवश उल्लेख कर रहा हूं कि हिंदी के एक प्राध्यापक रोज सुबह बजे मुझे सुप्रभात एसएमएस करते थे जो केवल अंग्रेजी में (Good morning) होती हैं। मैंने अब तक किसी भी रूप में अपनी आपत्ति नहीं दर्शाई है क्योंकि वह मूलत: अंग्रेजी में होती है परन्तु मेरे मन में यह विचार ज़रूर आया है कि हिंदी के प्राध्यापक होते हुए भी कभी हिंदी में सूक्तियॉ क्यों नहीं प्रेषित करते हैं। यह लिखते समय यह विचार ऊभरा है कि यदि मैं उन्हें 2-4 सुप्रभात देवनागरी लिपि में प्रेषित कर दूँ तो शायद इससे उनकी आंखें खुल जाये। इस तरह के लेख लिखने और सोचने से तो अच्छा है हिंदी में एसएमएस कर देना। यद्यपि इस प्रकार की पहल से एक साथ व्यापक परिवर्तन नहीं नज़र आता है किन्तु परिवर्तन होता ज़रूर है। रोमन लिपि में हिंदी का लेखन प्रमुखतया एसएमएस तथा ई-मेल पर ही दिखलाई पड़ती है। य़दि इस क्षेत्र में देवनागरी लिपि का उपयोग सतत बढ़ाया जाए तो उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त होंगे।

देवनागरी लिपि के बजाए रोमन लिपि में हिंदी को लिखा जाना एक व्यापक परिवर्तन की ही आहट है। हिंदी के लिए रोमन लिपि कहीं आवश्यकता भी प्रतीत होती है जैसे पाकिस्तान के किसी व्यक्ति से बातें करना। उस स्थिति में व्यक्ति क्या करे जब एक को देवनागरी लिपि न आती हो और दूसरे को उर्दू के शब्दों का ज्ञान ना हो। परिणामस्वरूप सहज राह रोमन लिपि में हिंदी ही मिलती है। प्रौद्योगिकी के युग में राष्ट्र की सीमाएं नहीं रह गई है सूचनाओं आदि की सम्प्रेषण तेज गति से हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व की भाषाओं में परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। इसके बावजूद भी देवनागरी लिपि के संग हिंदी से जुड़े सभी लोगों को यह चाहिए कि यह सुनिश्चित किया जाए कि देवनागरी लिपि का ही प्रयोग हो। इससे देवनागरी लिपि का प्रचार-प्रसार होगा। यह इसलिए कहा जा रहा है कि अधिकांश स्थितियॉ तो आदत से जुड़ी होती है। यह भी एक अजीब स्थिति है राजभाषा देवनागरी और रोमन लिपि दोनों में है, ऐसा क्यों? यहॉ पर तो देवनागरी लिपि से भी काम चल सकता था। 


 सच है कि हिंदी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती रोमन लिपि की ही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हिंदी का परिदृश्य लगातार बदल रहा है। उसमें विस्तार हो रहा है। लेकिन उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हो रहीं। कुछ चुनौतियां कृत्रिम हैं, तो कुछ जायज भी हैं। लिपि की चुनौती को मैं जायज मानता हूं। इसलिए कि हिंदी भाषी समाज में यह जंगल की आग की तरह फैल रही है। गिनती के मामले में अंग्रेजी के अंकों को स्वीकार कर हम पहले ही समर्पण कर चुके थे। नतीजा यह हुआ कि आज की पीढ़ी में शायद ही हिंदी की गिनती को कोई समझता हो। हिंदी चैनलों में काम करने को आने वाले युवा पत्रकारों को सबसे ज्यादा मुश्किल इसी में होती है। नई टेक्नोलॉजी के आने के बाद वाकई देवनागरी में व्यवहार मुश्किल होता गया। चूंकि कंप्यूटर का आविष्कार पश्चिम में ही हुआ, और जो भी कोई नई प्रगति होती है, वह भी वहीं से होती है, इसलिए सब कुछ अंग्रेजी में ही आरंभ होता है। जो देश प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत हैं, वे जरूर अपनी भाषाओं में शुरुआत करते होंगे। लेकिन हमारे यहां चूंकि अंग्रेजी का बोलबाला है, इसलिए कोई भी नई चीज हमारे यहां अंग्रेजी में ही पहुंचती है


मीडिया की जरूरतों के कारण कोई चीज हिंदी या भारतीय भाषाओं में आती भी है, तो बहुत देर से। मसलन इंटरनेट आया तो हमारे सामने फॉण्ट की समस्या पैदा हुई। वर्ष 2000 में जाकर माइक्रोसॉफ्ट ने कंप्यूटर के भीतर ही मंगल नामक यूनिकोड फॉण्ट देना शुरू किया। लेकिन यह बड़ा ही कृत्रिम लगता है। देवनागरी का सौंदर्य उसमें दूर-दूर तक नहीं झलकता। खैर बाद में कुछ और फॉण्ट यूनिकोड पर आए और हिंदी की दशा सुधरी। लेकिन की-बोर्ड की समस्या बरकरार रही। इसी तरह अंग्रेजी में स्पेलिंग चेक करने वाला सॉफ्टवेयर होता है, व्याकरण जांचने वाला सॉफ्टवेयर होता है, हिंदी में बीस साल बाद अब जाकर इस तरह के प्रयास सामने आ रहे हैं, फिर भी वे बहुत कम इस्तेमाल हो रहे हैं। यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है। किसी भी नई एप्लिकेशन के हिंदी में आते-आते छह महीने लग जाते हैं। इसलिए नए बच्चे धड़ल्ले से रोमन में हिंदी लिख रहे हैं।


पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने संसद में बड़े जोरदार तरीके से सरकार पर हमला किया। वह हिंदी में बोल रहे थे, लेकिन उनके हाथ में जो पर्ची थी, वह रोमन में थी। इस पर बड़ा हंगामा हुआ। वास्तव में हिंदी तो वह जानते हैं, पर देवनागरी लिपि में अभ्यस्त न होने से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा। इसमें हाय-तौबा करने वाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि आज बड़ी संख्या में देश के युवा ऐसा ही कर रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले तमाम दक्षिण भारतीय कलाकार रोमन में ही अपनी पटकथा बांचते हैं। विज्ञापन जगत में काम करने वाले ज्यादातर लोग यही करते हैं। पिछले दिनों अंग्रेजी के बहुचर्चित लेखक चेतन भगत ने भी घिसी-पिटी दलीलों के साथ रोमन की वकालत करने वाला लेख लिख मारा। इससे यह पता चलता है कि एक बार फिर रोमन-परस्त ताकतें सिर उठा रही हैं।


आजादी से पहले भी ये लोग रोमन की वकालत कर रहे थे। लेकिन तब राष्ट्रवाद का ज्वार इतना तेज था कि ये अलग-थलग पड़ गए। देवनागरी लिपि इस देश की भाषाओं की अभिव्यक्ति की सबसे उपयुक्त लिपि है। वह केवल सौ साल में नहीं बनी। वह ब्राह्मी-खरोष्ठी और शारदा का स्वाभाविक विकसित रूप है और दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। रोमन लिपि अंग्रेजी भाषा को ही ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती। वह एक अत्यंत अराजक लिपि है। अंग्रेजी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ खुद इस लिपि को किसी लायक नहीं समझते थे। उन्होंने अपनी वसीयत में एक अच्छी-खासी रकम इस लिपि की जगह किसी नई लिपि के विकास के लिए रखी थी। रोमन लिपि न उच्चारण की दृष्टि से मानक है और न ही एकरूपता के लिहाज से, जबकि देवनागरी लिपि जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जा सकती है। ऐसी लिपि की अवहेलना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण होगी।


बेहतर होगा कि इस मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए हम अपने तर्क मात्र इस बिंदु पर सीमित रखें कि हिंदी जैसी भाषा के लिखने के लिए कौन-सी लिपि उपयुक्त है, देवनागरी या रोमन. रोमन लिपि की 26 अक्षरों की सीमा के कारण अंग्रेज़ी के महान् नाटककार बर्नार्ड शॉ ने इसे 40 अक्षरों की लिपि बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन परंपरावादी अंग्रेज़ों ने अपने ही महानतम लेखक की बात पर भी गौर नहीं किया. हिंदी एक ध्वन्यात्मक भाषा है और इसे लिखने के लिए सदियों से एक ऐसी अक्षरात्मक प्रणाली विकसित हो गई है जिसे भाषावैज्ञानिक विश्व की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि मानते हैं. हम जैसा बोलते हैं लगभग वैसा ही लिख लेते हैं. कुछ वर्ष पूर्व पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल चीन के दौरे पर गईं और चीनी नेताओं के नामों के सही उच्चारण के लिए उन्होंने देवनागरी लिपि का सहारा लिया. यह तो रही विदेशी शब्दों के देवनागरी में लिप्यंतरण की बात. अगर हम हिंदी के प्रचलित शब्दों को रोमन में लिखना शुरू कर देंगे तो हम हर जगह पर और हर समय हँसी के पात्र ही बनते रहेंगे. कला शब्द को रोमन में Kala लिखते हैं तो आप अनायास ही इसे काला, कला या काल के रूप में पढ़ सकते हैं. राम और रमा को रोमन में Rama ही लिखा जाएगा.

इसके अलावा वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अंग्रेज़ी के अनेक शब्द चाहे-अनचाहे हमारे दैनिक व्यवहार में अनायास ही घुसपैठ करने लगे हैं और उन्हें सही उच्चारण के साथ लिखने के लिए हमें उन्हें लिप्यंतरित करके देवनागरी में लिखने के लिए विवश होना पड़ता है. उनके सही उच्चारण के लिए देवनागरी का ही एकमात्र विकल्प हमारे सामने रह जाता है. ऐसी स्थिति


विशेषज्ञों का मानना है कि दिनों दिन बढ़ते मोबाइल फोन और इंटरनेट के इस्तेमाल में सामग्री लिखने के लिए आमतौर पर लोग अँगरेजी के की-बोर्ड का इस्तेमाल कर रहे हैं और ज्यादातर रोमन लिपि में हिन्दी लिख रहे हैं जिसमें शब्दों का उच्चारण तो हिन्दी का होता है लेकिन वह लिखी रोमन की वर्णमाला में जाती है।


इन विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस तरह का प्रयोग स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ज्यादा कर रहे हैं जो भविष्य के नागरिक हैं। उनमें यदि शुरू से ही हिन्दी में इनपुट देने की प्रवृत्ति नहीं होगी तो आने वाले समय में देवनागरी लिपि के लुप्त होने का खतरा पैदा हो जाएगा


वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव भी इस चिंता से सहमत दिखे। उनका कहना है कि इस प्रवृत्ति से हिन्दी की 'लिपि के लोप का खतरा' है। देव ने कहा कि लोग हिन्दी को सिर्फ बोली के तौर पर ले रहे हैं और उसकी लिपि पर विचार नहीं कर रहे हैं। कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि 2013 तक भारत दुनिया में मोबाइल इस्तेमाल करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश होगा। मौजूदा समय में देश में करीब 40 करोड़ लोग मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या भी करोड़ों में है।


सरकार देश के ग्रामीण क्षेत्रों मोबाइल टेलीफोनी और इंटरनेट का उपयोग बढ़ाने पर जोर दे रही है और इस दिशा में आधारभूत ढाँचे का विस्तार किया जा रहा है। सेवा प्रदाता कंपनियों को भी भारत के गाँवों में बाजार दिख रहा है। ऐसे में इन दोनों माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले लोगों में हिन्दी लिखने के लिए अँगरेजी भाषा का उपयोग जारी रहा तो स्थिति की विकटता को समझा जा सकता है।


देव ने कहा कि देश में प्रौद्योगिकी की सख्त आवश्यकता है लेकिन हिन्दी के विकास के लिए हिन्दी के की-बोर्ड के इस्तेमाल की भी जरूरत है और इस बात का सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है कि कितने लोग लिखने में हिन्दी के की-बोर्ड का उपयोग कर रहे हैं


उन्होंने कहा कि कुछ मोबाइलों में हिन्दी की 'की' मौजूद है लेकिन इसका कितने लोग इस्तेमाल करते हैं? उन्होंने कहा कि कुछ कंपनियों ने फोनेटिक की बोर्ड के जरिये रोमन लिपि को देवनागरी में तब्दील करने की तकनीकी पेश की है और इस रचनात्मकता का स्वागत किया जाना चाहिए। इस स्थिति से बचने के बारे में उन्होंने कहा कि भारत, भारतीयता और भारतीय भाषाओं को बचाने की पहल देश के भीतर से करनी पड़ेगी।


 मोबाइल और इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के साथ देवनागरी लिपि के लिए खतरा पैदा हो गया है लेकिन इससे भयभीत होने की बजाय मुकाबला करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि इसका समाधान घरों में बच्चों को देवनागरी में लिखने पढ़ने की आदत डालकर ही निकाला जा सकता है।


उन्होंने कहा कि मीडिया इस प्रवृत्ति में अहम भूमिका निभा रही है क्योंकि टीवी पर एक बाइक के विज्ञापन में रोमन लिपि में ही लिखा आता है कि 'अब पीछे क्यों बैठना।' भारतीय जनसंचार हिन्दी पर अँगरेजी के दबदबे की मुख्य वजह आम लोगों के भीतर 'भाषा के गौरव' की भावना का लोप होना है। उन्होंने कहा कि देश में आजादी के आंदोलन और समाजवादियों के नेतृत्व में चलाए गए हिन्दी आंदोलन का असर खत्म हो गया है जिसका स्थान बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने ले लिया है।


उन्होंने कहा, 'जब अपने ही लोगों में भाषा का गौरव खत्म होता है तो सचमुच में खतरा पैदा हो जाता है।' उन्होंने कहा कि इसी देश में भाषा के गौरव के लिए भाषाई आधार पर राज्यों का गठन हुआ था लेकिन आज ‘अँगरेजी ऐसी करेंसी बन गयी है जो नौकरी दिलाती है।’ इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि अँगरेजी भाषी होने पर कुछ भी न होने पर पाँच से सात हजार की सेल्स की जॉब मिलना आसान है जबकि हिन्दी के बल पर ऐसा नहीं हो सकता। प्रधान ने यह भी कहा कि देश में नवधनाढ्य वर्ग अपने बच्चों को अँगरेजी स्कूलों में पढ़ा रहा है और गरीब भी समझने लगा है कि अँगरेजी के बल पर ही आगे बढ़ा जा सकता है अत: चुनौती तो पैदा हो ही गई है।


 यह आवश्यक हे कि हम किसी भी भारतीय भाषा को उसी लिपि में लिखें और लिखने को तरज़ीह दें जो उस भाषा के लिए बनी हुई है । रोमन लिपि के प्रति आकर्षण अंतत: हमें अपनी जड़ों से अलग ही करेगा । आखिर में एक बात । ज्यों - ज्यों हमारे देश में हिंदी और दूसरी भाषाओं को हल्के में लिए जाने का षडयंत्र बढ़ेगा, त्यों - त्यों इन भाषाओं के जानकारों का वर्चस्व बढ़ेगा।



डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद

स्वरचित व मौलिक अप्रकाशित अप्रसारित रचना

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मैं स्वप्रमाणित करती हूं ये निबंध मौलिक अप्रकाशित अप्रसारित रचना है

डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद



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