नारी का स्वरूप बढ़ाओ,समझो नारी की व्यथा
देवी हैं वो हर घर की करो मान सदा उसका
उठकर भोर जो काम में जुट जाती
रखकर ख्याल सबकी पंसद,इच्छाए उसकी लुट जातीं
फिर भी न कोई शिकन ,न करती कोई चिंता
हस देतीं है सबकी हसीं मे ,जिसपर हैं दुनिया फिदा
जाने छुपा कर कितने दर्द दामन मे, मुस्कुराती हैं हर घड़ी
कौन समझेगा उसके सपनों को सोचती है खड़ी-खड़ी
परम्पराओं से घिरी वो औरत रो देतीं है कभी कभी
कहाँ हैं उसके सपनो का आसमान
,यहा तो है उसे जिम्मेदारियों की लड़ी
मिटा कर अपने सपनों का समां ,
सम्भालने लगती एक नया जहां
मान -सम्मान का ख्याल जिसकी कभी किसी को न रहा।
जाने कितना आपमान का कीचड़ उस पर लगा ।
कर ख्याल उसकी भावनाओं का ,जरा मान उसे देना
नहीं हैं वस्तु वो , कभी कभार उसका भी मन पढ़ लेना।
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