आज चौदह जुलाई है। यूँ तो दिल्ली में मानसून के समय इतनी ज्यादा बारिश नहीं होती है। ज़रा सी आँधी- तूफान और कुछ बूंदा-,बाँदी बस! इसी में सावन-भादौ का दो महीना बीत जाता है। एनसीआर का भी अकसर यही हाल रहता है। परंतु आज का दिन शायद अपवादस्वरूप है। दोपहर से ही आसमान में काले- काले बादल उमड़- घुमड़ कर रहे थे। शाम तक बड़ी- बड़ी बूँदे गिरने लग गई थी। साथ में बिजलियों का कड़कना भी बादस्तूर ज़ारी था।
युग की नौकरी का आज पहला ही दिन था। काॅलेज से निकलकर उसे दोस्तों को ट्रीट देना पड़ा। किस तरह से दोस्तों का पीछा छुड़ाते- छुड़ाते करीब साढ़े- आठ बज चुके थे। इस समय वह अकेले ड्राइव करके घर जा रहा था।
उसने हमेशा से ही यह गौर किया था कि जिसदिन बारिश होती थी, बिजली दफ्तर पहले से ही पावर कट कर दिया करती है। फलस्वरूप नोएडावासियों को यदि ऐसे समय घर से बाहर निकलना हो तो जगह-जगह बने पानी के गड्ढों के साथ- साथ अंधकार से भी सामना करना पड़ता था।
सड़के सूनी थी। ऐसे मौसम में कौन बाहर निकले? बारिश की आवाज़ और साथ में केवल कार के वाईपरों की स्लश- स्लश आवाज़ों के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा आवाज़ न सुनाई देता था। एक लाल बत्ती पर युग ने गाड़ी जैसे ही रोकी, जाने कहाँ से आपादमस्तक भीगती हुई एक लड़की वहाँ आई और गाड़ी के बोनेट ऊपर गिर गई।गनिमत यह थी कि गाड़ी इस समय रुकी हुई थी। वर्ना आज भयंकर कुछ हो सकता था!
हाथ हिला- हिलाकर वह लड़की कुछ कहने की कोशिश कर रही थी। शायद मदद की गुहार माँग रही थी। उसके पीछे कुछ लड़के भी आते हुए दिखे युग को। जब उस लड़की ने लाइट की ओर अपना चेहरा घुमाया तो युग के मुँह से निकल गया--
" अरे यह तो वही लड़की है।"
उसने फटाफट गाड़ी का शीशा नीचे उतारा और हाथ के ईशारे से उस लड़की से बोला,
" आप गाड़ी के अंदर आ जाइए।"
बदहवास वह लड़की जैसे ही वह गाड़ी में आकर बैठी ट्रैफिक सिग्नल हरी हो चुकी थी और युग ने गाड़ी को आगे बढ़ा दिया।
******************************************** उसी दिन सुबह साढ़े दस बजे
आज सिमरन के काॅलेज में प्रथम वर्ष के सत्र का पहला दिन था। न्यू-एडमिशन लिया था उसने इस काॅलेज में और उसका दर्शन शास्त्र में आॅनर्स था। पासकोर्स में उसने हिन्दी विषय भी ले रखा था। अपनी सहेलियों के संग कक्षा में प्रवेश करने से पहले वे लोग बाहर सूचना पट्ट पर लगी सूचनाएँ देख रही थी। टाइम- टेबुल में हर विषय को पढ़ाने वाले शिक्षकों के नाम भी लिखा हुआ था। उसी ओर नज़र किए हुए उसकी प्रिय सखी रजनी बोल पड़ी,
" सिम्मी देख! हिन्दी के ये युग बजाज कहीं तेरे कॅालोनी वाला तो नहीं है।"
" अरे, रजनी तू पागल है, क्या? वह लफंगा यहाँ काॅलेज का प्रोफेसर कैसे हो सकता है? तू भी न जाने कैसी - कैसी बातें करती है!"
इसके बाद लड़कियाँ कक्षा में चली गई थी। अपने बेंच पर बैठी टिचर के आने तक खुसर- फुसर करने लगी थी। यह एक गर्ल्स काॅलेज था।आज की पहली कक्षा हिन्दी विषय काशथा और उसे लेनेवाले थे वही युग बजाज।
प्रोफेसर के कक्षा में दाखिला लेते ही, उन्हें देखकर सारी लड़कियाँ उठ खड़ी हुई थी। लड़कियाँ इतनी यंग और हैण्डसम प्रोफेसर देखकर बड़ी खुश हो गई थी और एक दूसरे को आँखें मारने लगी थीं। परंतु इधर प्रोफेसर का चेहरा देखकर सिम्मी के पसीने छूटने लग गए थे। ये वही तथाकथित युग बजाज ही थे!! परंतु ये यहाँ कैसे आ सकते हैं?!!
अपने काॅलोनी के जिस युग बजाज को वह जानती थी, उसकी गिनती वह गली के निठ्ठलेबाजों में किया करती थी। गप्पे हाॅकना, जोर- जोर से हँसना, आती- जाती लड़कियों को ताड़ना, एक दूसरे को माँ- बहन की गाली देना -- ये सब उन लोगों का नित्यकर्म था। लड़कों के उस झुंड में यह युग भी शामिल था। स्कूल आते- जाते सिमरन इस झुंड को रोज़ ही सुबह- शाम देखा करती थी-- कभी पानी की टंकी के ऊपर तो कभी पार्किंग लाॅट में, किसी दिन कोई बिल्डिंग के नीचे तो कभी सोसाइटी ऑफिस के पास लगे पीपल के पेड़ के नीचे इस जत्थे का दर्शन अकसर उसे हो जाया करता था।
उसदिन रात को जब वह ट्यूशन पढ़कर लौट रही थी। करीब नौ बज रहे होंगे तब। सिमरन का मूड आज ठीक नहीं था। कोचिंग क्लास में अचानक लिए गए इतिहास के टेस्ट में वह फेल हो गई थी! अतः बुझे हुए दिल से जिस समय वह अपने काॅलोनी में आई। कहीं से कुत्ते की भौंकने की आवाज़ आ रही थी। अचानक क्या हुआ पता नहीं, यह युग कहीं से दौड़ता हुआ आया और सिमरन से टकरा गया और दोनों गिर पड़े थे। सिम्मी ने उसके बाद उसके इस हरकत पर इतनी धुनाई की थी कि वह बेचारा उसे जिन्दगी भर नहीं भूल पाएगा!
आज उसी लफंगे को सर कहकर बुलाना पड़ रहा था, उसे!! यह कैसी मजबूरी थी??
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थोड़ी देर बाद एक सूखा हुआ कपड़ा सिमरन की ओर बढ़ाते हुए युग ने कहा,
" अपना सर पोछ लीजिए! काफी भीग गई हैं, आप!"
सिमरन उसदिन युग को कहे हुए कटु शब्दों पर पछता रही थी। उससे थोड़ी देर तक कुछ न कहा गया। उसने चुप- चाप वह कपड़ा ले लिया और उससे अपने बाल सुखाने लगी।
कुछ देर बाद गाड़ी काॅलोनी में घुस गई। पार्किंग के बाद एक छाते में युग सिमरन को उसकी बिल्डिंग के नीचे तक यत्नपूर्वक छोड़ आया। रुखसत होते समय सिमरन की आँखों में पानी था और वह केवल इतना ही कह पाई थी-- " शुक्रिया!"
जवाब में युग ज़रा सा मुस्कराया, थोड़ा अपना सिर हिलाया और छाता लेकर वहाँ अपने घर की दिशा में चला गया!
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
वाह बहुत दिनों बाद आपकी रचना हिन्दी मे पढ़ी😊😊
धन्यवाद, बबीता जी। वह दस रचनाएँ बंगला में लिखने को कहा गया था, मुझे। इसलिए हिन्दी में लिखने को समय नहीं मिल रहा था।
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