"बहुत दिन हुए सतवीर अंकल और ऋतु आंटी की कोई खबर न मिली। करीब- करीब दो साल हो चुके हैं उनकी शादी को अब तो"। रूही ने एक दिन सुबह उठ कर सोचा।
" जब से मैं उन दोनों को ट्रेन पर बैठा आई थी फिर उनके बारे में कभी कुछ नहीं सुना, कैसे हैं,, क्या कर रहे हैं-- कुछ भी न मालूम हुआ। न तो कभी उनका कोई काॅल आया और न ही मैंने उनकी कोई खबर लेने की कोशिश की। जानती हूँ कि गलती सरासर मेरी ही है। सांसारिक कार्यों में इतना उलझ जाती हूँ कि समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है। फिर यह बात मेरी जेहन से भी एक तरह से निकल चुकी थी! "
"अभी पिछले सोमवार को ही तो रानी मिली थी किट्टी में उसने भी कुछ नहीं कहा। और देखो, मैं भी उससे उनके बारे में पूछना भूल गई। अच्छा, रानी को एक बार फोन कर लूँ?"
" अरे नहीं, रानी तो तब से नाराज़ है । जब से मैंने उसके पिता जी की दूसरी शादी में मदद की। ढंग से बात भी नहीं करती है आज कल। मुझे avoid करती रहती है। फोन करने पर अगर बात न करें तो? कहीं मुझे पहचानने से ही इंकार न कर दे!"
" हाँ, याद खूब आया,,, जाने से पहले अंकल जी ने मुझे अपने गाँव का पता दिया था। ऐसा करती हूँ कि एक बार मिल आती हूँ उन दोनों से। हाल चाल भी पूछ लूँगी और लगे हाथ ज़रा गाँव घूमना भी हो जाएगा।" जैसी सोच, वैसा काम!
अगले दिन सुबह घर वालों को सूचित करके रूही उस गाँव के लिए रवाना हो गई। जाते समय घर पर यह बता कर गई कि रात तक लौट आएगी !
मुद्दतों बाद ट्रेन में बैठकर उसे बड़ा अच्छा लगा। आजन्म शहर में पली रूही का कभी पहले गाँव जाना न हो पाया था। जब वह बचपन में सहेलियों को गर्मियों के छुट्टियों में गाँव जाते हुए देखती थी तो उसका भी बड़ा मन करता था कि वहाँ उनके साथ वहाँ जाने को! परंतु उसके नाते- रिश्तेदार सारे शहर में ही बस गए थे। इसलिए रूही के पास कभी गाँव जाने की कोई वजह ही न थी।
परंतु, उसने उन दिनों खुद से एक प्रतिज्ञा की थी कि वह एक दिन बड़ी होकर कम से कम एक बार कोई गाँव जरूर जाएगी! अचानक लिए हुए अपने इस फैसले के कारण आज उसकी वह बचपन की प्रतिज्ञा को यूँ पूर्ण होते देख कर रूही को बड़ा आनंद आया। उसने मारे खुशी के चलती रेलगाड़ी की खिड़की में से अपना सिर बाहर निकालकर ताज़ी स्वच्छ हवा को अपने फेंफरों में भरना शुरु कर दिया।
जैसे- जैसे गाँव नज़दीक आता जा रहा था वैसे-वैसे हवा में एक अजीब किस्म की ताज़गी घुलती जा रही थी,जो उसके तन-मन में प्रसन्नता भरती जाती थी। शहरों में इतनी स्वच्छ हवा कहाँ मिलती है? वहाँ के घुटन भरे माहौल में एक कृत्रिम जिन्दगी जीते हुए हमारा संपूर्ण जीवन निकल जाता है। और स्वच्छ वायु-सेवन का सपना दिल में ही रह जाता है। रोज़ी- रोटी की फिक्र में शहरों से बाहर निकलना भी कितना कम हो पाता है!
शहरों के विपरीत, यहाँ पर जहाँ तक रूही की नज़रे जाती थी उसे हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी। इतनी हरीतिमा को देख कर उसका मन- मयूर स्वतः सब कुछ भूलकर अपने प्रिय कोई गीत के बोल गुन- गुनाने लगा था! तभी उसने ध्यान दिया कि ट्रेन के अधिकांश लोग उसके इस पागल पन को, इस हरकत को, घूर- घूर कर देखे जा रहे हैं।
अपनी झेंप को छिपाने के लिए रूही ने जल्दी से अपना चेहरा पुनः खिड़की से बाहर कर लिया। गाँव पहुँच कर उस दो साल पुराने पते को ढूँढकर निकालने में पहले तो रूही के पसीने छूट गए।
यहाँ कोई सतवीर अंकल के बारे में कुछ भी बता ही न पाया। उनके गाँव वाले मकान में भी इस समय कोई और परिवार रह रहे थे। उन लोगों में से किसी ने अंकल अथवा आंटी का कभी नाम भी न सुना था! इधर दोपहर हो चली थी। हवा में गर्मी बहुत बढ़ रही थी। रूही ने तो सोचा था कि आंटी से मिलने पर वे ज़रूर उसे खाने खिलाए बिना न छोड़ेगी।
पर यहाँ तो नज़ारा ही बहुत अलग था। रेलवे स्टेशन से खरीदा हुआ पानी का बोतल तो पाँच घंटे की सफर में , ट्रेन में ही पूरी खत्म हो चुकी थी। इस समय उसे प्यास भी बहुत लगी थी। आगे बढ़कर रूही ने देखा कि गाँव के एक पीपल के एक पेड़ के नीचे एक हैण्ड- पंप लगा था।
रूही की आदत नहीं थी पंप से पानी भरने की और पंप का डंडा भी काफी सख्त था! कई बार ताबोड़- तोड़ हाथ चलाने पर ज़रा सा पानी जैसे ही निकला रूही ने उसे किसी तरह साथ लाए हुए बोतल में भर कर अपनी प्यास बुझाई!
रूही को इसी समय एक बारह- तेरह बरस का लड़का दिखा जो वहीं पर पानी पीने आया था। उसके हाथ में स्कूल का एक थैला भी था। शायद वह स्कूल से घर जा रहा था! रूही ने आगे बढ़कर उस लड़के से सतबीर अंकल के बारे में पूछा। परंतु उसे भी कुछ मालूम न था! लेकिन उस लड़के ने एक अच्छा सा उपाय उसे सुझाया। वह बोला,
" उधर उत्तर की तरफ चले जाइए,,, वहाँ आधे मील की दूरी पर पंचायत- भवन है। वहाँ पूछ लीजिए। वे लोग गाँव भर की जानकारी रखते हैं!"
" धन्यवाद बच्चा!" रूही ने प्यार से लड़के का माथा सहलाया और वह पंचायत भवन की ओर आगे बढ़ गई।
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