पुस्तक का नाम : बावळी बूच ( उपन्यास)
लेखक : श्री सुनील कुमार जी
प्रकाशक : हिन्दी युग्म ( ब्लू)
मूल्य : 150/_
समीक्षक : मौमिता बागची
इस पुस्तक को पढ़ने से पहले इसकी कुछेक बहुत सारगर्भित समीक्षाएँ फेसबुक पर मैंने पढ़ ली थी। काफी चर्चित रही है इस उपन्यास की कुछ समीक्षाएँ इतनी अच्छी थी कि मैंने उसी समय यह तय कर लिया था कि इस पुस्तक को जरूर पढ़ूँगी। क्या करूँ विषय ही इसका इतना अच्छा है। अच्छा भी है और ज़रा हटके भी।
पहले ही कह चुकी हूँ कि यह पुस्तक कई दृष्टियों से विशेष है। सबसे पहले तो इसका शीर्षक, " बावळी बूच" जिसका अर्थ लेखक ने पुस्तक के अंत में स्पष्ट किया है। इसका अर्थ होता है--( स्वयं लेखक के शब्दों में)
" --लगभग सभी ने अंतक को मूर्ख यानी बावळी बूच समझा।"
दूसरा, जहाँ आजकल के लेखक प्रेम- प्रसंगों, स्त्री- पुरुष संबंधों या भूतिया अथवा तिलस्मी विषयों के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते हुए नज़र आते हैं वहीं सुनील जी ने इस पुस्तक के जरिए प्राइवेट इंस्टिट्यूटों द्वारा भोले- भाले छात्रों को ठगा जाने का ज्वलंत मुद्दा उठाया है।
हम सभी ने कभी न कभी इस दर्द को झेला है, और फिर उसको चुपचाप सह भी लिया है, परंतु लेखक ने उस विषय पर अपनी लेखनी चलाकर सिस्टम के प्रति जिस विद्रोह का आगाज़ किया है वह बहुत ही सराहनीय है।
इस पुस्तक में सबकुछ है- नायक अंतक का अंत तक संघर्ष, सिस्टम के प्रति आक्रोश, प्राईवेट शिक्षा संस्थानों की मनमानी, शिक्षार्थियों से पैसा- लूटना, फिर वादे के मुताविक सेवाएँ न उपलब्ध करवाना। प्रबंधन एवं फैकाल्टी के बीच आपसी द्वेष एवं क्षुद्र स्वार्थ के खातिर एक- दूसरे की पीठ पर छुरा घोंपना--ये सारे वर्तमान शिक्षा- संस्थानों के कुछ ऐसे सच हैं, जिससे रूबरू होते हुए भी अधिकतर लोग प्रतिवाद नहीं करते ! प्रतिवाद तो छोड़िए कहीं न कहीं हम सभी अंत तक इसी गड़बड़ सिस्टम में जैसे- तैसे फिट हो जाना चाहते हैं। परंतु अंतक इससे बिलकुल अलग प्रजाति का जीव है। वह प्रतिभाशाली है। जहाँ वह एक तरफ अन्याय को जवाब देना जानता है वहीं दूसरी ओर दोस्तों को भी समय आने पर उचित सलाह देता है, उनकी मदद भी करता है।
इस उपन्यास का अंत यद्यपि आदर्शवादी तरीके से की गई है। परंतु वह बहुत स्वभाविक ही लगता है। कहीं पर कुछ भी आरोपित नहीं लगा।
पत्रकार अंतक जिस गुलनाज़ के जीवन पर स्टोरी बनाता है, वह प्रसंग पाठक के हृदय में अत्यंत प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम है।
उपन्यास की भाषा भी विषयानुकूल व्यंग्यात्मक तीव्रता लिए हुए हैं जो काब़िले तारीफ है एवं अपने स्थान पर एकदम सटीक।
कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है--
" न्यूज चैनल में दो तरह के लोग होते हैं। एक पत्रकार और बाकी सभी गैर पत्रकार।----- खास बात यह होती है कि गैर- पत्रकारों में से कई श्रीमान- श्रीमती दुनिया में खुद को मीडिया बताकर ज्यादा भौकाल टाइट करते रहते हैं। इनमें से कुछ तो ऑफिस के अंदर ही पत्रकारों से ज्यादा पत्रकार बन जाते हैं। मतलब अपना काम राम- भरोसे और दुनिया जहाँ की खबरों को इधर- उधर करना इनका ही कर्तव्य बन जाता है।"
तो यह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए मीडिया हाउजेस और उनके पत्रकारों का जमीनी हकीकत बयां करता है!
पात्र-योजना भी इनका बड़ा दिलचस्प है। शिक्षर दीक्षित, ट्विंकल मैडम, राम कौशिक, गंगाधर भट्टाचार्य , शेखर द्विवेदी, सपना मैडम जैसे पात्र सीनियर मिडिया एकेडमी में अपने- अपने विशेष भूमिकाएँ निभाते हुए नज़र आते हैं।और इन सबकी अलग- अलग वैशिष्ट्य भी है। एक उदाहरण देखिए--
"जाड़- दाँतों से च्विंगम का कचूमर निकालते हुए एक साहब क्लास रूम में दाखिल हुए। दोनों हाथ गले की टाई से गुत्थम- गुत्था थे। चेहरे पर मेकअप था।"
या फिर--
" दरवाजे पर एक अजीब शख्सीयत अवतरीत थी। कमर से नीचे टाइट जींस और पैरों पर ऊँचे बूट। तो टाॅप- फ्लोर पर ऋषि- मुनियों- सा लिबास। सिर पर बड़े- बड़े बाल और चेहरे पर सिर के बालों से भी बड़ी दाढ़ी।"
एक और विशेष बात इस किताब में लक्षित होती है-- आजकल के लेखक जहाँ पर अपनी बड़ी- बड़ी डिग्रियाँ, अनुभवों और पुरस्कारों की सूची गिनाते हुए नहीं थकते हैं, वहीं लेखक सुनील कुमार जी के बारे में यह पुस्तक बिलकुल मौन है।
खैर, इसकी विशेष आवश्यक्ता भी नहीं लगती। क्योंकि मुझे सोलह आना विश्वास है कि आगामी दिनों में उनकी लेखनी ही बढ़- चढ़कर उनके बारे में कहेगी।
-- मौमिता बागची
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