मायरा इस समय घर पर अकेली है। बुआ जी किसी काम से बाहर गई हुई थी! घर के कामकाज हेतु जिस नौकरानी को रखा गया था, वह भी सबको द्विप्राहरिक भोजन करवाकर, थोड़ी देर के लिए,अपने घर चली गई थी।
अभी दोपहर के तीन बज रहे थे और मायरा को अकेले बैठे-बैठे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। वह सोच रही थी कि कोई काम किया जाए जिससे कि उसका दिल, थोड़ी देर के लिए ही सही,, बहल जाएगा। वैसे ही खयाल आया कि चलो कुछ पेंडिंग काम ही इस समय निपटा लिए जाए!
जैसे ही यह खयाल उसके मस्तिष्क में आया तो सबसे पहले उसकी नज़र सामने रखी अलमारी पर पड़ी। वह पलंग पर से उठ खड़ी हुई। उसने तय किया कि आज इस अलमारी को ही सबसे पहले व्यवस्थित कर लेगी। कितनी देर से इस काम को वह टाले जा रही थी। यही सब सोचते हुए उसने अनमने से अलमारी में चाबी घुमाकर उसे खोल दी।
यह अलमारी उसकी माँ विमला की थी! जब तक उसकी माँ थी यह अलमारी हर समय बहुत ही व्यवस्थित रहा करती थी। कल कुछ कागज़ात खोजते समय मायरा ने इसमें रखे सारे सामानों को अस्त- व्यस्त कर दिया था। आज फिर उन्हीं को सहेजने बैठी थी। जब तक उसकी माँ जीवित थी, इस घर का हर एक चीज़ एक दम टिप- टाॅप कंडीशन में हुआ करता था!
जबकि उसकी माँ हर सुबह दफ्तर जाती थी, और देर रात तक काम करके घर लौटती थी, तब भी! पता नहीं, कैसे वे सब कुछ मैनेज कर लेती थी! गृहकर्म में भी वे उतनी ही निपुण थी जितना कि कार्यालय में उनकी तूती बोला करती थी! मायरा को तो केवल काॅलेज जाना होता है पर वहाँ से लौट कर ही वह इतना थक जाती है कि आते ही सीधे कुछ देर के लिए पलंग पर औंधा पसर जाती है!
अगर माँ बुलाकर उसे नहीं उठाती तो वह कभी- कभी रात को भूखी ही सो जाती है। माँ की याद आते ही दो बूँद आँसू उसकी आँखों से नीचे ढुलक पड़े। पिताजी के जाने के बाद उसे इतने बड़े संसार में केवल एक माँ का ही तो उसे सहारा था!
वे भी आठ रोज़ पहले कैंसर के आगे हार मानते हुए यह दुनिया छोड़कर हमेशा के लिए पिताजी के पास चली गई हैं! पापा के जाने के समय मायरा बहुत छोटी सी थी। आज भी उसे वह दिन धुँधला- धुँधला सा याद है। दालान के बीचोंबीच उसके पापा लेटे हुए थे। माँ सभी सगे- संबंधियों के साथ बैठी रो रही थी! उस दिन से आज तक अपने पापा को केवल फोटो के ज़रिए ही जाना है मायरा ने।
फिर कुछ- कुछ बातें माँ से भी सुनी थी। उसकी अदम्य जिज्ञासा के आगे उसकी माँ भी कभी- कभी मौन हो जाया करती थी। पापा के चले जाने के बाद उसकी माँ ने बहुत संघर्ष करके, कई इम्तिहान देने के बाद यह नौकरी पाई थी। परंतु वह माँ भी जब नहीं रही तो अब मायरा किसके साथ रहेगी? वह केवल बीस वरस की ही तो है।
इतनी कम उम्र में ही उसने अपने माता- पिता दोनों को ही खो दिया है। उसका कोई भाई- बहन भी नहीं है। दादा- दादी तो कब के गुज़र गए हैं और नाना- नानी जो हैं भी, वे भी पापा से शादी करने के कारण माँ से इतने नाराज़ हुए कि कभी भी उसके बाद उनको मिलने ही न आए! यहाँ तक कि माँ की मृत्यु का समाचार पाकर भी नहीं!!
अतः गाँव से बुआजी को ही आना पड़ा हैं। वे ही अपने साथ अपनी "भाई की निशानी" को गाँव लिवा ले जाएगी। अब मायरा उनके परिवार के साथ हमेशा गाँव में रहेगी। पर आजीवन शहर में पली मायरा गाँव जाकर क्या करेगी? बेतरतीब सामानों के अंबार में से एक पैकेट निकलकर मायरा के पैरों के पास आकर गिर पड़ती है। मायरा ने खोलकर देखा तो एक सुन्दर बैंगनी रंग की महंगी सिल्क की साड़ी थी! उस पर हाथों से लिखा हुआ एक नोट था। माँ ने लिखा था---" मेरी मायरा के लिए उसके जन्मदिन पर--- शुभाशीष माँ!"
माँ का हस्ताक्षर देखकर मायरा के मन में फिर से उदासी छा गयी थी। फिर उसे थोड़ा कौतुहल भी हुआ--" माँ ने कब यह साड़ी खरीदी? मुझे बताया भी नहीं!" इसके बाद उसने उस साड़ी को अपने ऊपर ओढ़कर शीशे में खुद को देखने लगी। पर देखती क्या? माँ की यादों ने नज़रों को धुँधला कर दिया था। याद आया कि अगले महीने ही उसका जन्मदिन है, शायद उसे गिफ्ट में देने के लिए ही माँ ने इस साड़ी को खरीदा होगा। पर वह गिफ्ट उसे वे कभी न दे सकीं!
यह पहला ही साल होगा जब उसको माँ के बिना ही अपना जन्मदिन मनाना पड़ेगा! "क्या माँ जानती थी कि उनका समय अब करीब आ गया है?"
एक लंबी साँस लेकर मायरा वह साड़ी समेटने लगी। अब तो अपनी जन्मदिन को यह साड़ी वह ज़रूर पहिनेगी। उसकी माँ की जब इतनी इच्छा थी! साड़ी को समेट कर वापस उसे पैकेट में रखते समय मायरा ने पहली बार ज़मीन पर पड़े हुए उसे पीले रंग के लिफाफे को देखा! जब उस लिफाफे को खोला तो उसमें अनजाना हस्ताक्षरों में एक संक्षिप्त सा पत्र उसे मिला।
बस इतना ही लिखा था-- "माँ, आप तो हमें भूल ही गई हैं। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा होती है। आपका बंटी ।" अब, यह बंटी कौन है? और यह चिट्टी किसको लिखी गई है? मायरा को कुछ भी समझ में न आया! " पर यह चिट्ठी,, यहाँ पर कैसे आई?"
मायरा अपनी इन्हीं सब सोच में गुम थी कि उसको बुआ जी का कमरे के अंदर आने का पता ही नहीं चला। पर जब वे बोली-- " बिट्टो,, तुमसे मिलने भाभी के दफ्तर से मनोहरलाल जी आए हैं! ज़रा अपने बालों को ठीक करके तनिक बाहर बैठक में आओ न" तो मायरा उनकी आवाज़ से बेहद चौंक उठी थी। पहली बार तो उसे कुछ भी समझ में नहीं आया।
पर दूसरी बार बुआ जी द्वारा वही वाक्य दोहराने पर वह उनसे बोली, " ज़रा उनके लिए चाय- पानी का इंतज़ाम करवा दीजिए, बुआजी। मैं अभी आती हूँ!" कह कर उस चिट्ठी को दराज़ में छिपाकर अलमारी को पुनः बंद करके मायरा ज़रा फ्रेश होने बाथरूम में चली गई।
( क्रमशः)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
दूसरे पार्ट के लिए इंतजार ज्यादा लंबा मत कीजिएगा 😍
सुन्दर.. भावपूर्ण रचना..!
चारु जी कमलेश जी शुक्रिया🙏 @चारु जी कहानी पूरी हो चुकी है, बस अपलोड करने की देरी है😊
वाह
शुक्रिया रुचिका जी
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