पाँच वर्ष का रेयांश एकबार अपनी पापा -मम्मी के साथ मुद्रा-प्रदर्शनी देखने गया!
उन दिनों सूरत शहर में कोई प्रदर्शनी लगना आम बात हुआ करती थी। सूरत व्यापारिक शहर तो था ही अतः आए दिन कोई न कोई प्रदर्शनी वनिता विश्राम परिसर में लगा ही करती थी। आखिर, यह खुला हुआ प्रांगण सूरत नगर-निगम द्वारा इसी हेतु तैयार की गई थी।
लेकिन कपड़े- ज़ेवर, फूल- पौधे, कृषि संसाधनों, तरह- तरह के खाने- पीने के समानों के प्रदर्शनी से तो सुरती लोग पहले से वाकीफ़ थे। इक्के- दुक्के पुस्तक मेलाओं का आयोजन भी आज कल इस शहर में होने लगा था, परंतु सिक्कों की प्रदर्शनी??!! यह बिलकुल नई बात थी भोले- भाले सुरतियों के लिए!
स्वभाव से घुमक्कड़ और पूरी दुनिया का चक्कर लगा चुके रेयांश के पिता गौतम इसलिए इस मेले को देखने के लिए आज बहुत ही उत्साहित थे। और उससे भी ज्यादा उत्साह से भरा हुआ था, शायद छुटकू -सा रेयांश! उसकी आँखों में जिज्ञासाओं का अनंत सागर समाया हुआ था! उसके सवाल आज खतम ही नहीं हो पा रहे थे!
" मम्मा, सिक्के किसे कहते हैं?"
"अच्छा, कोई भी गोलकार धातु की चीज़ को हम सिक्का कह सकते हैं, क्या मम्मी? पापा के हाथ का वह कड़ा भी सिक्का है?"
"नहीं बेटा, उसे कड़ा कहते हैं, " गौतम गाड़ी की स्टीयरिंग पर अपना कड़ा वाला हाथ घूमाकर बोला!
" लो, रेयांश अब तो हम पहुँच गए, काॅयन एक्जीवीशन!" पार्किंग पर अपनी गाड़ी को लगाते हुए गौतम अपने बेटे से बोले।
परंतु वहाँ जाकर पता चला कि प्रदर्शनी खुले मैदान की बजाय इस बार सड़क पार किसी भवन के मुख्य हाॅल में लगी है। कुछ बहुमूल्य मुद्राएँ इस प्रदर्शनी में रखी गई थी! उनके सुरक्षा के खातिर शायद यह व्यवस्था की गई थी।
बहरहाल, तीन टिकट लेकर गौतम अपने परिवार के साथ घूम- घूमकर प्रदर्शनी देखने लगे।
अचानक एक जगह पर कुछ नया देखकर नन्हा रेयांश खड़ा हो गया और माँ का हाथ पकड़कर खींचने लगा।
कांता के पीछे मुड़ते ही रेयांश बोला-
" मम्मा मुझे यह चाहिए! प्लीज़ दिला दीजिए न!!"
" क्या चाहिए, बेटा?"
" वो वाला, सिक्का!" रेयांश अपनी नन्हीं ऊंगली से दिखाते हुए बोला।
" बेटा, यह तो किसी स्कूल का मेडेल लगता है-- देखो ऊपर विद्यालय का नाम भी लिखा हुआ। आप तो इस स्कूल में नहीं जाते!"
" हाँ, मुझे यही चाहिए!"
" पर बेटा, मेडल तो जीतना पड़ता है, इसे खरीदा नहीं जाता!"
" मैं नहीं जानता, यह सबकुछ! मुझे यही चाहिए।" यह कहकर रेयांश जमीन पर लेट गया। और उस पदक को खरीदने के लिए जिद्द करता रहा।
" यार, कांता! क्या है यह सब? संभालो बच्चे को। दे दो, न जो भी माँग रहा है।"
"गौतम, आप समझ नहीं रहे हो। किसी स्कूल का पुराना मेडल खरीदना चाहता है, और वह भी पचास रुपये में। अब बच्चे है, इसलिए उसकी हर जिद्द तो पूरी नहीं की जा सकती न?"
" अरे मेडल ही तो माँग रहा है, उस आंटी की तरह नकली मोती तो नहीं खरीदना चाहता!"
" क्या मोती, और वह भी इस सिक्के की प्रदर्शनी में?"
यह देखकर दोनों फिर खिलखिलाकर हँस पड़े!
" दिकरो, तमे हसी रह्या छो?" ( बेटा, आप हँस रहे हो?) इनकी बात सुनकर आंटी जी आश्चर्य से बोली।
इस बार कांता गौतम के कान में फुस-फुसाकर बोली ,
" पर गौतम, मेडल तो जीतने पड़ते है। यूँ खरीदा थोड़ी न जाता है?"
" तो इतना काबिल बनाओ अपने बच्चे को, किसने रोका है?"
"बेटा रेयू, इधर आइए-- चलिए हम आपको यह मेडल दिलाते हैं। परंतु आप मुझे क्या देंगे?" गौतम घुटने टेक कर रेयांश के पास बैठ गया और उससे पूछा।
" पप्पी" कहकर रेयांश उठकर पापा का गले पकड़कर लटक गया।
" मुझे तो अपने रेयू से और भी कुछ चाहिए।" गौतम अपने बेटे को लाड़ करते हुए बोला।
" क्या चाहिए पापा , आपको? आपके पास तो बहुत सारे पैसे हैं, गाड़ी-"
" पर मेरे पास अपने रेयू के जीते हुए मेडल्स तो नहीं हैं? आपकी मम्मा भी तो यही चाहती हैं। आप हमे देंगे न? जब आप बड़े हो जाएंगे तब आप हमारे लिए ढेर सारे मेडल्स जीतकर लाएंगे! बताइए?"
" गाॅड प्रमिस, पापा! पक्का प्रमिस मम्मी।"
फिर वह वाला पदक उसके पापा ने उसे खरीदकर दे दिया।
अगले दिन, रेयांश अपनी नए पदक से खेलता हुआ मम्मी से गंभीर स्वर में कहा,
" मैं भी ऐसा ही मेडल जीतना चाहता हूँ। क्या आप मुझे इसे जीतने के लिए तैयार कर देंगी?"
फिर क्या था, दोनों माँ- बेटे कुछ वर्षों तक लगातार मेहनत करने लगे।
दस वर्ष बाद--
वापसी की फ्लाइट में कांता ने रेयांश से कहा,
" रेयू तुम्हें याद है, तुमने एकबार बचपन में जिद्द करके एक मेडल खरीदी थी।"
" खूब याद है, मम्मा! वह मेरा पहला मेडल था।"
" हाँ बेटा, उस दिन तुमने अपने पापा से प्रमिस किया था कि खुद के दम पर हमारे लिए मेडल जीतकर लाओगे। आज तुम्हारे जीते हुए ये 21 अंतराष्ट्रीय मेडल देखकर वे बड़े खुश होंगे।"
" थैन्क्यू सो मच, बेटा!"
रेयांश अमरीका में " World Scholars' Cup" के फाइनल में अपने देश का प्रतिनिधि बनकर गया था। और वहीं से इतने सारे स्वर्ण और रौप्य पदक जीतकर लौटा है। यह देखकर कांता का मस्तक गर्वोन्नत हो उठा था।
उधर गौतम एयरपोर्ट में खड़े- खड़े अपनी सफल परवरिश का परिणाम देखने को आतुर हो रहा था।
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