चारों तरफ है धर्म का बोलबाला,
कोई गुरु है तो कोई उसका चेला।
सब अपने धर्म को सही ठहराते,
दूसरों की मान्यता पर कीचड़ उछालते!
विचारधाराओं में आज,
देखो बँट गया है - इंसान!
आइए, सबसे पहले समझते हैं कि धर्म क्या है?
"धर्म" शब्द संस्कृत के "धृ" धातु से बना है, जिसका अर्थ है-- "धारण करना"। अब प्रश्न यह उठता है कि धारण क्या करना है?
धारण करना है सदाचार यानी कि अच्छे विचार---अपने एवं दूसरों के प्रति। इसके साथ ही आवश्यक है कि जीवन में अच्छे आचरण भी अपनाए जाए।
मनुस्मृति में "धर्म" के दस लक्षण इस प्रकार दिए गए हैं--
" धृति, क्षमा दमोस्त्रेयं शौचं इन्द्रिय निग्रह:।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधों, दसकं धर्म लक्षणम्।।"
( 6/12)
अर्थात् धार्मिक कहलाए जाने के लिए जिन दस लक्षणों की आवश्यक्ता होती हैं वे हैं-- धैर्य, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इंद्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना। बस, इतना ही यदि आप कर सकते हैं तो आप परम धार्मिक बन सकते है।
हमारा हिन्दू धर्म अत्यंत प्राचीन है। पुराने समय से ही गुरु एवं शिक्षकों द्वारा धर्म का पाठ अत्यंत बाल्यावस्था से ही हमें दिया जाता रहा है। अतः उस समय धर्म मानव जीवन का एक आवश्यक अंग था। इसके अंतर्गत पूजा- पाठ, नाम- स्मरण, धार्मिक कर्मकांडों, जैसे यज्ञ आदि का किया जाना, कई तरह के विधि- विधान भी प्रचलित थे, जिसे ईश्वर भक्ति के अंग के रूप में माना जाता था।
लेकिन आधुनिक समाज-व्यव्स्था में धर्म का पर्याय केवल आडम्बर मात्र रह गया है। यहीं से धर्मांधता की शुरुआत होती है। मध्यकाल में हमारे देश पर विधर्मियों का जब से आक्रमण हुआ है,उसी समय से ही अपने धर्म की रक्षा के खातिर धार्मिक कर्मकांडों पर अत्यधिक बल दिया जाने लगा है। इस तरह आडम्बरों पर अधिक बल दिए जाने से धर्म के विषय में एक संकीर्ण दृष्टि उत्पन्न हुई। आधुनिक समय तक पहुँचते- पहुँचते इन्हीं रीति- रिवाज़ों और धार्मिक कर्मकांड इत्यादियों ने इतना वृहद् आकार धारण कर लिया है कि ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उसने मूल "धर्म "को ही निगल लिया है। इतना कि इन धर्म के ध्वजावाहकों के सम्मुख ईश्वर भी आज कदाचित् बौने से दिखाई देने लगे हैं।
इतने सारे मठों, मार्गों, विचारधाराएँ, बाबा एवं गुरुओं, self styled Godmen आज उत्पन्न हो गये हैं-- कि आज इनको सुनकर और देखकर दिमाग चकराने सा लग जाता हैं। कहाँ तो पहले जमाने के सर्वत्यागी संत, फकीर और सन्यासी हुआ करते थे-- जो मूलतः भिक्षोपजीवी होते थे, और आज भोग- विलास में रत अत्याधुनिक तकनीकों से लैस बाबाओं और उनके शिष्यों की लंबी फौज को देखकर एवं उनकी वाणी और विचारधाराओं को सुनकर मनुष्य का दिग्भ्रमित हो उठना कोई बड़ी बात नहीं है।
जिस सनातन धर्म की स्थापना किसी समय मानव जीवन में एक सुव्यवस्था लाने, सदाचारों का समावेश करके मनुष्यों को नैतिक पाठ की शिक्षा देने हेतु किया गया था, दुर्भाग्यवश आज उसने इतना विराट रूप धारण कर लिया है कि आए दिन देश भर में सांप्रदायिक दंगों की खबरें मिलती रहती हैं। जिनको देखकर लगता है कि मानव के बीच प्रेम और सहिष्णुता जैसे सद्भावों का बिलकुल ही समापन हो गया है।
सांप्रदायिकता का संक्रमण आज इतना फैल चुका है कि वह किसी वायरस जनित बीमारी से कम असरदार नहीं लगती। धर्म का रुख आज धर्मांधता की ओर बढ़ता जा रहा है। विश्व में जो मुख्य धर्म हैं-- जैसे- हिन्दू- धर्म, इस्लाम, ईसाई, यूहदी आदि- आदि सभी अपने धर्म को सच्चा और सही मनवाने पर तुले हुए हैं। और इस कार्य को अंजाम देने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
मुझे ऐसा लगता है कि हर धर्म की बुनियाद में है-- मनुष्य और मानव का हित। चारण कवि चंडी दास कहकर गए हैं--
" सबार ऊपर मानुस सत्य, तार ऊपर किछु नाय।"
अर्थात् सबसे बड़ा सत्य इंसान है और इससे बड़ा कुछ नहीं।कहने का अर्थ है कि धर्म, जाति, मान्यताएँ सब इंसानों के मद्देनज़र बनाए गए हैं। समाज व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए उनकी स्थापनाएँ की गई थी। मगर, आज मनुष्य पीछे रह गया है और ये मान्यताएँ बड़ी हो गई है। और वे मान्यताएँ भी मात्र भेदभाव उत्पन्न करने की हथियार बनकर रह गई हैं। और ये सारी चीज़ें एक संक्रामक रोग की भाँति पूरे समाज में फैलने लगी है। कुछ-कुछ करोना वाइरस के ही समान।
करोना वाइरस जैसे चीन के वुहान के एक क्षेत्र से निकलकर अब पूरे विश्व में,फैल चुकी है उसी प्रकार यदि हम अपने सोच पर काबू नहीं,पाएँगे और इस भेदभाव को बढ़ावा देंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हम अकेले और ऐसे ही कट- कटे होकर रह जाएँगे । जैसे की आज कल हम सामाजिक दूरियाँ बनाए रखने में व्यस्त हैं। इस तरह यदि चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य सामाजिक प्राणी न रहकर अपने छोटे- छोटे व्यक्तिगत इकाइयों में घूमते हुए नज़र आएंगे।
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