माहिरा को उस दिन अपने कुछ प्रयोगों के लिए फिजिक्स लैब पर देर तक रुकना पड़ गया था। वह कुछ परीक्षण कर रही थी, जिसके परिणाम उसके आशानुरुप नहीं निकल रहे थे। इसके लिए उसे बार- बार अपने परीक्षण को दोहराना पड़ रहा था। वह रिडिंग पर रिडिंग लिए जा रही थी, लेकिन सफलता अब भी उससे कोसों दूर थी। परंतु माहिरा, इतनी दूर आकर किसी भी कीमत पर अब हार मानने के लिए तैयार न थी।
आज सुबह ही उसे एक बड़ी खुशखबरी मिली थी। उसने नासा के जिस इंटर्नशीप परियोजना हेतु आवेदन किया था उसमें उसका चयन हो गया था। यह उसके लिए अपने सपनों का साकार होने जैसा था! हालाँकि यह एक छोटा सा समर- प्रोजेक्ट था जिसे वह अगली गर्मियों की छुट्टी में ज्वाइन करने वाली थी, परंतु इससे उसके लिए आगामी दिनों में रिसर्च हेतु अनेक दरवाज़ा खुलने वाले थे। उसे अपने भविष्य के लिए काफी नए अनुभव मिलने वाले थे। इसी आनंद के चलते उसने जी-जान से और मेहनत करने के लिए अपना कमर कस लिया था।
फिजिक्स के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सिंगला शुरु से ही माहिरा की इस लगन और परिश्रम से बहुत प्रभावित थे। अध्यापकों को भी अकसर ऐसे ही छात्रों की तलाश रहा करती है जो होनहार होने के साथ- साथ मेहनती भी हो। ताकि वे अपनी सारी विद्या उन छात्रों तक स्थातांतरित कर सकें।
कई प्रतिभाशाली छात्र प्रायः उचित मेहनत के अभाव में अपनी सफलता को प्राप्त करने से वंचित रह जाते थे। हर बैच में ऐसे दो चार छात्र प्रोफेसर साहब को मिल जाया करते थे।
यह अत्यंत खेद का विषय है कि आज कल के छात्रों में मेहनत करने की प्रवृत्ति बिलकुल समाप्त हो गई हैं। आज छात्रों के बीच तुरंत नतीजों पर पहुँचने की एक अजीब सी जल्दी रहा करती हैं। इस परिणामोन्मुख छात्र-समाज में वह खोजने की इच्छा, स्वयं करके कुछ हासिल करने की तृष्णा बिलकुल बची ही न रह गई थी। उनका तो केवल अब परीक्षा के दौरान मिलनेवालों अंकों से ही वास्ता रह गया है।
रह-रहकर प्रोफेसर सिंगला साहब को अपना बचपन याद आ जाता है। गाँव से दस मिल दूर रोज़ चल कर वे गाँव के इकलौते सरकारी स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। उनके पिता के पास एक पुरानी साईकिल लेने तक के पैसे न थे। रात को जब पूरा गाँव सो जाता था तब वे घर के एक कोने में एक ढिबरी के स्वल्प प्रकाश में बैठे कैसे अपना पाठ याद किया करते थे! उस समय उनको लगता था कि ज़रा सा और साधन की संपन्नता उनके पास होती तो वे भी बहुत कुछ कर खुज़र सकते थे।
आज कल छात्रों के पास सब कुछ है मगर कुछ करने की वह इच्छा ही शेष न रह गई। और हो भी क्यों-- आजीवन ऐशो-आराम के बीच पलनेवाली पीढ़ी आराम तलब नहीं होगी तो और क्या होगी? मेहनत का महत्व ये लोग कैसे जाने?!
प्रोफेसर साहब ने हताशा भरी एक लंबी श्वास ली और अपनी मेज़ पर से उठ खड़े हुए!
गनीमत यह थी कि माहिरा उन छात्रों की श्रेणी में शामिल न थी। वह अथक मेहनत करना जानती थी। अतः जब शाम तक भी उसके परीक्षण के परिणाम आशानुरुप न निकले वह आगे दुबारा-तिबारा कोशिश करने में जुट गई। उसने एक प्रकार से जिद्द ही पकड़ ली थी कि वह इस परीक्षण को आज पूरा करके ही दम लेगी।
शाम ढलने के बाद काॅलेज में जब सारी बत्तियाँ जल उठी थी तब भी माहिरा अपनी सीट पर बैठी थी। यहाँ तक कि प्रयोगशाला बंद करने का समय आ गया था। लैबएटेंडेंट कई दफे माहिरा से उठने के लिए बोलकर गया था। क्योंकि उसके घर जाने का समय हो गया था, अब प्रयोगशाला को आज के लिए बंद करना था!
जब प्रोफेसर सिंगला घर के लिए निकलने लगे तो उन्होंने माहिरा के पास जाकर अपने स्नेहमिश्रित स्वर में उससे कहा,
" बेटा, अब रात हो चुकी है। आज घर चली जाओ। कल सुबह आकर अपना एक्सपीरीमेन्ट पूरा कर लेना। चलो,मैं अपनी गाड़ी से तुम्हें तुम्हारे घर पर छोड़ देता हूँ।"
" सर, प्लीज़, थोड़ी देर और। इस बार लगता है कि हो जाएगा! आप,,, घर जाइए सर! मैं रिडिंग लेकर फिर निकलती हूँ।"
फिर ज़रा मुस्कराकर सर की ओर देखती हुई माहिरा बोली-- "इस काम को पूरा किए बिना आज रात को नींद नहीं आएगी मुझे!"
" जैसी तुम्हारी मर्जी, बेटा। अच्छा सुनो, जाने से पहले लैब की बत्तियाँ सारी बुझा देना और चाबी कैमस्ट्री लैब के सिक्यूरिटी गार्ड बलराम के हाथों में दे देना। उसका घर मेरे घर के पास ही है। सो, वह मुझे पहुँचा देगा! मैं जाते समय उसको कहे देता हूँ।"
" और हाँ, देखो, अभी आठ बज रहे हैं, नौ बजे तक जरूर काम समाप्त कर लेना क्योंकि उसके बाद बलराम भी नहीं रुकेगा। वह तो आज उनके विभाग में कोई सेमिनार है,,, इसलिए अभी तक घर नहीं गया है।"
" जी,, ठीक है सर! मैं उसे चाबियाँ दे दूँगी। आप चिंता न करें! और सदाशिव ( लैब एटेन्डेंट) भैया को भी जाने को कह दीजिए, प्लीज़!" माहिरा ने अपने विभागाध्यक्ष को आश्वस्त करते हुए कहा।
इसके बाद प्रोफेसर सिंगला भी घर चले गए।
माहिरा ठीक पौने नौ बजे अपने काम से निवृत्त होकर उठी और लैब को ठीक- ठाक ताला लगाकर उसकी कुंजियाँ बलराम के हाथों में देकर घर की ओर चली।
बलराम सरदार उस समय रसायण विभाग में झाड़ू लगा रहा था। उनका सेमिनार थोड़ी देर पहले ही समाप्त हुआ था। लोग अपने घर जा चुके थे। उसने माहिरा को देख कर ज़रा मुस्कुराया और जाते हुए माहिरा से उसने कहा,
" दीदी, संभलकर घर जाना। बहुत अंधेरा है बाहर।"
जवाब में माहिरा भी मुस्कुराई और उसने अपना सर थोड़ा सा हिला दिया।
बलराम इसके बाद झाड़ू लगाने में व्यस्त हो गया।
सच ही कहा था बलराम ने। पूरा काॅलेज इस समय सूनसान था। आगे की सड़क पर एक दो स्ट्रीट लाइट टिमटिमा जरूर रही थी। इसके आलावा कहीं भी रौशनी न थी।
उस धुंधलके से अंधेरे के बीच पूरे माहौल में एक अजीब सी शांति पसरी हुई थी। मानो रात भर के लिए ये काॅलेज की बिल्डिंगें सोने चली गई थी। फिर सुबह छात्रों के आने पर आँखें मल कर जागने वाली हैं।
केवल केमेस्ट्री लैब की ओर से एक तीव्र रौशनी आ रही थी, जिससे सामने सड़क का एक छोटा सा वृत्त आलोकित हो उठा था! और कभी- कभी बलराम के द्वारा झाड़ू लगाने के क्रम में कुर्सी मेज खींचने की एक क्षीण ध्वनि सी भी आ रही थी। बस, शेष और कोई आवाज़ कहीं न थी!
अक्तूबर का अंतिम सप्ताह था। रोहतक में इस समय रात का तापमान चौदह डिग्री के आस पास पहुँच चुका था। सरदियों की शुरुआत होने ही वाली थी। हवा में एक हल्की सी सिहरन भरी हुई थी। माहिरा ने अपना दुपट्टा खोलकर शाॅल की तरह उसे अपने कानों को ढक लिया फिर दुपट्टे के दोनों छोरों को अपने ऊपर अच्छी तरह लपेट लिया !
जल्दी मेन गेट पर पहुँचने के लिए माहिरा ने कालेज के मैदान से शार्ट कार्ट लेना उचित समझा। उसे भी अब थोड़ी सी बेचैनी होने लगी थी। उसके घरवाले अब तक जरूर उसके घर लौटने होनेवाले देरी के कारण चिंतित हो रहे होंगे।
"पापा अब तक दफ्तर से लौट आ गए होंगे। बुआ जी ने रात का खाना बना दिया होगा और अब दोनों रात के खाने पर उसी का इंतज़ार कर रहे होंगे।" यही सब सोचते हुए लंबे - लंबे डग भरती हुई माहिरा काॅलेज के मैदान से गुज़र रही थी।
मैदान के किनारे में जो फुटबाॅल का गोल-पोस्ट बना हुआ था, वहाँ पर एक छोटी सी रौशनी अचानक जल उठी थी। उसी रौशनी में अब दो-तीन छायाकृतियाँ माहिरा को नज़र आने लग गई थी।
क्रमशः
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
waiting for next part....
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