महेन्द्र जी और उनकी पत्नी सुधा टैक्सी से अपनी बेटी दामाद के घर जा रहे हैं। जामाई षष्ठी ( बंगाल में दामादों हेतु एक अनोखा पर्व जहाँ मूलतः सास द्वारा दामादों की पूजा खासकर पेटपूजा करवाई जाती हैं और उन पर तोफे इत्यादि की वर्षा की जाती है। यह त्यौहार जेठ के महीने की छठी तिथि को पड़ने के कारण "जामाई षष्ठी" के नाम से जाना जाता है) का अवसर था।
हर वर्ष इस त्यौहार का आयोजन सुधा जी अपने घर पर ही किया करती है। एवं इस महाभोज की तैयारी में उनकी बहू रुमेला उनकी हर तरह से मदद किया करती है। परंतु इस वर्ष बात कुछ अलग है। दस दिन पहले रुमेला की माताजी का करोने की चपेट में आ जाने से पिछले सोमवार को उनकी मृत्यु हो गई थी, जिसके कारण रुमेला को इस समय अपने मायके जाना पड़ा था। सो , बेटी झूमा ने अपनी मम्मी- पापा को अपने घर पर बुला लिया। झूमा बेटी को भी अपने नए दामाद को पहली जँवाई षष्ठी का भोज खिलाना था। अतः एक पंथ दो काज हो जाएगा यह सोचकर उसने दोनों उत्सवों का आयोजन इकट्ठे करने का मन बना लिया!
सुधा जी के दामाद यद्यपि अब स्वयं ससुर बन चुके थे! परंतु उनको सास की रस्म तो निभानी ही थी! फिर उनका संतु ( दामाद का नाम था--संतोष) एक बड़ा सरकारी मुलाज़िम भी था। दामाद ने जब अपने घर बुलवाया था तो मन न मानते हुए भी सुधा जी को जाने के लिए हामी भरनी पड़ी। महेन्द्र जी को भी यही सही लगा, क्योंकि वे जानते थे कि अकेले सारा आयोजन करना सुधा जी के वश में न था। अब उनकी वह उम्र न रही थी। झूमा को भी अपने माता- पिता से मिले हुए काफी समय हो गया था! इसलिए उसने माँ से पिताजी को भी साथ ले आने के लिए आग्रह किया था।
सुबह उठकर सुधा जी ने अपने हाथों से खीर- पूरी और कॅशा पाठा ( बकरी) का मांग्शो बनाया। संतु को अपनी सासु माँ के हाथों से बनी ये सारी पकवानें बहुत पसंद थी। फिर बेटे पार्थो द्वारा दुकान से दो बड़ी हाँडी रसोगुल्ला और मीठा दही भी मँगवा लिया। बेटी- दामाद के लिए नए वस्त्र और नातिन एवं उसके जॅवाई के लिए भी समुचित उपहारों की पोटली लेकर बेटे द्वारा बुलाई हुई टैक्सी में बैठकर वे दोनों सत्तरोत्तर दंपति अपने बेटी - दामाद के घर को चले।
जाते समय बेटा पार्थो ने अपने पिताजी को बार- बार याद दिला दिया था कि दीदी के घर पर पहुँचने के तुरंत बाद उसे एकबार फोन करके यह जरूर बता दें कि वे ठीक- ठाक वहाँ पहुँच गए है। बेटे को चिंता न करने को कहकर दोनों मियां- बीवी खुशी- खुशी पीली टैक्सी में बैठ गए।
काफी दिनों से वे दोनों घर से बाहर न निकले थे। करोना से सावधानी के कारण और फिर समधन की अचानक मृत्यु से उत्पन्न शोक के माहौल से अब खुली हवा में निकलकर उन्हें काफी अच्छा लगा।
रास्ते में, महेन्द्र जी टैक्सी से बार- बार सर निकालकर बाहर का नज़ारा देख रहे थे। सुधा जी उन्हें ऐसा करने से रोकने लगीं। पर जब वे न माने तो सुधा जी को थोड़ी उनको चिढ़ाना की सोची। उन्होंने महेन्द्र जी से कहा--
" क्यों बार- बार कम उम्र की हसीनाओं की ओर ताक- झाँक कर रहे हो? अपनी उम्र का कुछ तो ख्याल कर लिया करो! अब आप नाना ससुर बन चुके हो- क्या आपको यह सब करना शोभा देता है?" और वे अपनी आँचल को मुँह में ठूँसकर अपनी हँसी दबाने की कोशिश करने लगी!
महेन्द्र जी ने प्रत्यूत्तर में सुधा से कुछ भी नहीं कहा। एक शरारती मुस्कान देकर उन्होंने ड्राइवर को गाड़ी रोकने को कहा। सुधा जी से फिर उतरने को बोलकर वे अपनी तरफ का दरवाजा खोलकर गाड़ी से बाहर निकल आए।
सुधा जी लगा कि महेन्द्र जी को शौचालय जाना है- --इसीलिए उन्होंने गाड़ी रुकवाया है। तो वे गाड़ी के अंदर ही बैठी रहीं। कुछ देर तक जब वे न बाहर आई तो महेन्द्र जीने उनके तरफ का दरवाज़ा खोलकर बोले, "आओ सुधा, चलो।"
" यहाँ कहाँ?" सुधा जी नीचे उतरकर हैरानी से पूछी।
" अरे, चलो न !"
" यह तो झूमा का घर नहीं है!" " नहीं, एक सार्वजनिक पार्क है। थोड़ी देर यहाँ बैठकर, फिर चलते हैं न झूमा के घर। तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ।"
बुढ़ऊ का कोई नया ख्याल है सोचकर सुधा जी भी उनके साथ चल दी। पार्क में बनी सीमेंट के बेंच पर बैठकर महेन्द्र जी ने अपनी पत्नी से वहाँ आने का मकसद बताया!
" वह देखो, सुधा- क्या देख रही हो उधर?" सुधा जी ने इधर- ऊधर देखा पर उन्हें कुछ समझ न आया।
इस पर महेन्द्र जी उनसे बोले-- " वह ---उधर पेड़ के झूरमुट के पीछे! दिखा कुछ?"
" अरे, एक लड़का और लड़की वहाँ बैठे हैं---- तो?"
" तो तुम्हें क्या लगता है कि वे वहाँ क्या कर रहे हैं?" जवाब देने से पहले सुधा जी ने सोचा ,"यह बुड्ढा तो सचमें सठिया गया है!" सुधा जी गुस्से से खड़ी हो गई और बोली,
" आप चलिए यहाँ से, देर हो रही हैं हमें।" महेन्द्र जी ने तब बड़े प्यार से अपनी पत्नी का हाथ पकड़कर उनको पास में बिठाया और बोले,
" अच्छा सुधा! यह बताओ पहले हमने भी इस तरह एक- दूजे के साथ समय बिताया है क्या कभी? कभी आपस में बैठकर प्यार के दो बोल कहने की भी फुर्सत मिली क्या हमको?"
" कैसे करते? आप और हम सुबह से शाम तक चकरघिन्नी और कल्हू के बैल की तरह जिम्मेदारियों के बीच घूमते जो रहे हैं,सदा से!! दो पल का फुर्सत भी नहीं होता कभी हमारे पास! जब तक सास- ससुर थे, उनकी सेवा करनी पड़ी, फिर बच्चों की जिम्मेदारी-- बस इसी में सर के बाल सारे सफेद हो गए!"
" सच कहती हो सुधा। परंतु देखो समय तो निकालना पड़ता है। इनको देखों। क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि इनके पास कोई दूसरा काम नहीं हैं? है---- फिर भी अपने लिए समय निकालना इनको आता है।" सुधा जी ने फिर से एकबार उस युवा प्रेमी युगल की ओर देखा! महेन्द्र जी पुनः कहने लगे--
" जानती हो सुधा, हमें इन युवा पीढ़ी से सीखना चाहिए कि कैसे अपने लिए समय निकालना चाहिए।" सुधा जी ने तभी गौर किया कि वह लड़का लड़की को कुछ समझाने लगता है। इस पर लड़की रोने लगती है। जाने क्या समस्या थी दोनों के बीच! सुधा जी ने इसके बाद हैरानी से देखा कि वही लड़का तब अपने दोनों हथेलियों में उस लड़की का चेहरा थामकर उसे किस कर बैठता है!!! इससे भी आश्चर्य की बात उस समय यह हुई कि उस लड़के की देखा- देखी महेन्द्र जी भी लगभग इसी समय सुधा जी के होठों को चूम लेते हैं। लाज से गड़कर सुधा जी तब महेन्द्र जी के सीने में अपना चेहरा छुपा लेती है।
लंबे समय के बाद दो उम्रदराज दिल एक- दूजे से लिपटकर न जाने कब तक यूँ ही बैठे रहे! उन्हें समय का कोई हिसाब न रहा। यह भी न याद रहा कि वे बेटी के घर जाने के लिए वे अपने घर से निकले थे। उसका कई बार मिस्ड काॅल भी आ चुका था, परंतु किसी को वह सुनाई न दिया। दोनों जने के मास्क इस समय ठुड्डी पर से खिसक कर गले के पास झूल रहे थे। वे जाने कब तक ऐसे ही बैठे रहें ।
फिर अचानक एक पुलिस वाला न जाने कहाँ से उधर आ निकला! पुलिस वाले को दोनों बुजुर्गों को इस तरह एक- दूजे से लिपटे देखकर कुछ शक हुआ! गुस्से से पहले तो उसने अपने हाथ की लाठी को उस बेंच पर जोर से ठोका!
फिर उनसे पूछा, " दादा, दादीको घर से भगाकर लाए हो क्या?" दादा जितना उसे समझाते कि वे दोनों पति - पत्नी है, बेटी के घर जानेवाले हैं। बाहर उनकी टैक्सी खड़ी है। उतना ही काॅनस्टेबुल उनसे सबूत दिखाने को कहता! सबूत तो क्या था, उनके पास? जाते समय बेटे ने केवल राह- खर्च भर दिया था। आधार- कार्ड, पैन कार्ड आदि तो घर पर ही रह गए थे। बेटी के घर जाते समय भला कौन यह सब लेकर निकलता है?!!
पुलिसवाले को उनकी बात पर यकीन न हुआ । वह उन दोनों को जबरदस्ती थाने ले गया। दोनों के गिरगिराने का कोई असर उस पर न हुआ था! थाने जाकर महेन्द्र बाबू ने फोन करके बेटे और दामाद को अपनी परिस्थिति की सूचना दी।
दोनों तत्काल थाने पहुँचे। झूमा भी रोती हुई साथ आई थी। सभी के सम्मिलित गवाही से खैर थानेदार यह मान गया कि दोनों पति- पत्नी हैं और दोनों को उनके बच्चों के साथ इस हिदायत के साथ घर जाने दिया,
" अंकल जी अब से आंटी जी से लव- शव करना हो तो वह घर में बैठकर ही कीजिएगा-- बाहर, वैसे भी करोना का बहुत खतरा है! ही ही ही---"।
थाने से बाहर निकलकर झूमा ने छूटते ही कहा--" यह सब करने से पहले आप लोग एकबार अपनी उम्र का और हमारी इज़जत का तो थोड़े खयाल कर लेते? मैं अब अपनी बेटी और दामाद को क्या मुँह दिखाऊँगी?"
अपने ही बच्चों के सामने इतना जलील वे दोनों पहले कभी न हुए थे। शर्म से उनका चेहरा लटक गया था।
सुधा जी को लग रहा था कि यदि धरती इस समय अगर फट जाती तो वे इस समय उसमें जरूर समा जातीं!
महेन्द्र बाबू इधर सोचे जा रहे थे कि अपनी पत्नी से प्रेम का इज़हार करना कोई ज़ुर्म तो न था? फिर उनकी कोई इतनी जिल्लत हुई?
( अनूदित कहानी)
मूल कहानी के लेखक हैं फ्रांसीसी कहानीकार- Guy de Maupassant
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