निशीथ को पढ़ते समय नींद आ गई थी तो उसने थोड़ी देर के लिए एक छोटी सी झपकी ले ली। पर अभी वह हल्की नींद में ही था जब उसे अपनी माता का स्वर सुनाई दिया। मातृभक्त बेटा माँ की पुकार को कैसे उपेक्षा करता, भला? आँखें मलता हुआ वह उठ खड़ा हुआ। परंतु आँखें खोलते ही अंधकार ने उसका स्वागत किया!
"अरे,, यह क्या,,,कमरे की बत्ती को क्या हो गया?!! यहाँ इतना अंधेरा क्यों है?!!" उसने तो सोने से पहले लाइट नहीं बुझाई थी। तब?!!
" ओहो,,, याद आया! ग्रैबरियल बता रहा था कि इस इलाके में जब-तब बत्ती चली जाया करती है। मतलब लोडशेडिंग हो गया है,, धत्त!"
" माँ, आप एक मिनट रुकिए,,, अभी आता हूँ!" कह कर उसने शेल्फ में से एक मोमबत्ती निकाल कर जलाई! यह तो अच्छा हुआ कि कल सामान खरीदते समय उसने साथ में कुछ मोमबत्तियाँ भी रख ली था! प्रज्ज्वलित मोमबत्ती के प्रकाश में वह बरामदे पर आ खड़ा हुआ। लेकिन वहाँ उसकी माँ कहाँ थी?!! उसने इधर देखा,, उधर देखा,,, पर वे उसको न मिलीं! तब निशीथ को पहली बार ध्यान आया कि माँ तो गाँव में है!!! यहाँ कैसे आ सकती है?!! फिर जो आवाज उसने सुनी थी, वह किसकी था?
" शायद कोई भ्रम हुआ होगा! नींद में कोई सपना देख रहा था मैं, जिसे हकीकत समझ बैठा!" कह कर निशीथ वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि किसी ने बहुत ही सुमधुर कंठ से उसे पुकारा,
" किसे ढूँढ रहे हो? चौंककर निशीथ ने आवाज की दिशा में देखा,, तो उसे वहाँ पर एक बहुत खूबसूरत तन्वी खड़ी दिखी! " तुमने बताया नहीं, किसे ढूँढ रहे थे? अच्छा,,, मैं बताऊँ,,,,?कहीं ,,मुझे तो नहीं?" इतना कहकर वह लड़की खिल-खिला उठी। उसके हँसते ही निशीथ को ऐसा लगा कि मानों कहीं आसपास जलतरंग की कोई मीठी- सी ध्वनि बज उठी हो! अचानक ऐसा आरोप सुनकर निशीथ ज़रा सा झेंप गया! अत: उससे कुछ भी कहते न बना!
" अरे शरमाओ नहीं, मान भी लो! तुम यहाँ पर नए हो, क्या ? पहले तो कभी नहीं देखा तुम्हें? क्या नाम है तुम्हारा?"
" जी ,,निशीथ," शर्माता हुआ धीरे से वह बोला ," और आपका?"
" मेरा?? मेरा नाम है निष्ठा! तुम निशीथ,,,और मैं निष्ठा,,, अरे हमारे तो नाम भी मिलते जुलते हैं! बोलो,,दोस्ती करोगे हमसे?" निशीथ ने अपना सिर एक तरफ हिलाकर उसे अपनी सहमति दे दी। वह भी मन ही मन यही तो चाह रहा था! ' तो मिलाओ हाथ!" कहकर निष्ठा ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। और निशीथ ने उसे छू लिया। परंतु छूते ही उसे एक अजीब सी ठंडक महसूस हुई! निष्ठा के हाथ बरफ के समान ठंडे थे! निशीथ ने तुरंत अपना हाथ पीछे खींच लिया।
" अंदर आने को नहीं कहोगे? अरे यार, यूँ सड़क पर खड़े- खड़े ही बातें करें क्या? पहली बार तुम्हारे घर पर आई हूँ---और,, तुम हो कि,,।"
" अरे,,आइए न,,, साॅरी मैं तो भूल गया,,, आइए,,आइए,,, यहाँ पर बैठिए !" कह कर निशीथ अपनी आराम कुर्सी निष्ठा की ओर बढ़ा देता है और कमरे के अंदर से अपने लिए पढ़नेवाली कुर्सी खींचकर वहाँ पर ले आता है। " आप अंदर तो नहीं बैठना चाहती न?"
" नहीं यार,, यहीं पर ठीक है। बत्ती चली गई है तो अंदर गर्मी लगेगी!"
" जैसा आप कहे!"
कह कर निशीथ वहीं निष्ठा के पास बैठ गया! मोमबत्ती की पीली सी मद्धिम रौशनी में इस बार निशीथ ने निष्ठा को अच्छे से देखा। बड़ी- बड़ी तरावट ली हुई कजरारी आँखें थी उसकी। निर्मेद छड़हड़ा बदन, काले घने घुंघरालू केश जो इस समय एकल चोटी में गूँधी हुई थी और वह चोटी एक काली नागिन के समान उसके भारी नितम्बों पर डोल रही थी। क्षीण कटि और सुंदर, पतले आमंत्रण देते रसीले होंठ थे निष्ठा के। ऐसा लगता है कि सृष्टि कर्ता ने उसे बड़े फुर्सत से गढ़ा हो! वक्ष पर उभार ऐसा था कि जिसे देख कर कोई तपस्यारत साधु भी अपना चरित्र खो बैठे! फिर इतना सब कुछ होते हुए निशीथ जैसे उन्नीस वर्षीय सद्य युवा हृदय के लिए निर्लिप्त बने रहना बड़ा ही मुश्किल काम था!
उसके दिल में भयानक हलचल होने लगी! निष्ठा के बदन से इस समय उठती हुई भीनी- भीनी खुशबू से निशीथ इतनी थोड़ी से परिचय में ही मदहोष हो उठने लगा! निष्ठा भी निशीथ की अवस्था को देख कर हौले -हौले से मुस्कराने लगी! मुस्कराते समय उसकी मोतियों सदृश्य दाँतों का हल्का सा आभास दिखाई दे गया। फिर वह लड़की कुछ गुनागुनाने लगी और मानों ताल ठोकती हुई अपनी चोटी को हाथ में लेकर दाए - बाए हिलाने लगी। वातावरण इतना मायावी हो उठा था कि निशीथ सब कुछ भूल कर सम्मोहित सा बैठा रहा!!
" सच ही कहा था ग्रैबरियल ने!! इस इलाके की छोरियाँ तो कमाल की खूबसूरत है!" निशीथ को सहसा ग्रैबरियल द्वारा सुबह कही हुई वह बात याद आ गई!
" उम्म्म,,,क्या सोच रहे हैं, जनाब?" निष्ठा होठों पर एक मनमोहक मुस्कान लाकर पूछी!
" यही कि आप कहाँ रहती हैं?"
" यहीं पास में ही,,,,और अब से आपके दिल में,,,।" निशीथ थोड़ा सा झेंप गया। पर उसे निष्ठा के बारे में बहुत सी बातें और जाननी थी। सो हकलाता हुआ पूछा,
" अच्छा, आ--आ--आप क्क्या पढ़ती हैं?" " स्कूल में या काॅ--काॅलेज में?"
" काॅलेज,,, निष्ठा तुरंत ही बोली, फिर ज़रा शरारती लहज़े में उसने पूछा--" तुम्हारे काॅलेज के पास काॅलेज है मेरा!"
" लाॅरेटो?"
" हम्मम,,,!"
"अच्छा आपके पिताजी क्या करते हैं?" निशीथ जैसे पहली मुलाकात में ही सब कुछ जान लेना चाहता था!
"अरे छोड़ो न निशीथ,, वह सब! यह बताओ तुम्हें शहर कैसा लग रहा है?" पूछती हुई निष्ठा उठ कर निशीथ की कुर्सी के बाजू में आकर बैठ गई। और फिर उसके बालों को अपनी ऊँगलियों से सहलाने लगी!
निशीथ ने अपनी आँखें मूँद ली--- उसे यह सब सपने की भाँति लग रहा था। धीरे से वह बोला
" बहुत अच्छा,,, बहुत अच्छा लग रहा है!"
" अच्छा सुनो,, निशीथ आज मैं जाती हूँ! मेरे घर वाले मुझे न पाकर शायद ढूँढ रहे होगे!" कह कर निष्ठा सहसा उठ खड़ी हुई और जाने लगी!
पर निशीथ को वह सुख स्वप्न इतनी जल्दी भंग होता हुआ अच्छा नहीं लगा। उसने झट से निष्ठा का हाथ पकड़ लिया-
" फिर कब मिलोगी,,, कल?!" और अचानक रोक लिए जाने पर लड़खड़ाती हुई निष्ठा से वह पूछ बैठा।
" जब तक नहीं बताओगी,, जाने नहीं दूँगा---!!!!"
परंतु यह क्क्या?!! निष्ठा तो तब तक जा चुकी थी!
इतनी जल्दी कैसे चली गई?!! जैसे अचानक हवा में विलीन हो गई!
अंधेरे में निशीथ को ठीक से कुछ दिखाई न दिया। निष्ठा के जाने के बाद निशीद दुःखी होकर बरामदे में ही बैठा रह गया कुछ देर तक! उसे उससे और भी ढेर सारी बातें करनी थी।
आखिर जब बहुत देर हो गई तो बेमन से वह कमरे के अंदर गया और दरवाज़ा बंद करके बिस्तर पर लेट गया। इसी समय बिजली वापस आ गई । बत्ती बुझाने के लिए निशीथ को उठना पड़ा।
उठ कर उसने घड़ी में समय देखी तो रात के तीन बज रहे थे!
" अरे इतनी रात हो गई और मैं तो अब तक सोया भी नहीं। कल सुबह काॅलेज जाना है, मुझे!!"
निशीथ जल्दी से बत्ती बुझाकर सो गया! सपने में भी वह निष्ठा को देखता रहा।
अगले दिन शाम होते ही वह निष्ठा के आने का इंतज़ार करने लगा। निष्ठा ने कुछ बताया तो नहीं था कि वह फिर कब मिलेगी। पर निशीथ का दिल कह रहा था कि वह आज जरूर आएगी। उसने अपना दिल जो उसे दे चुका था!
क्रमशः
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