भारतीय समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से 'विवाह'-- एक अत्यंत पवित्र संस्था है-- जिसका प्रारूप कुछ- कुछ अभिमन्यू के चक्रव्यूह के समान है-- अर्थात् इसके अंदर घूसने का रास्ता तो हर एक को पता होता है पर इससे बाहर निकलने का नहीं!
और एकबार आप इससे बंध जाएं तो एक नहीं सात-सात जन्मों के लिए उसी भंवर में फँसे रह जाते हैं। 'तलाक' कदाचित् उसी भंवर से बाहर निकलने का एक अंतिम उपाय स्वरूप है!
जब भी हम तलाक की बात करें तो अवश्यंभावी रूप से पहले विवाह की चर्चा करनी पड़ेगी क्योंकि विवाह के बिना तलाक का अस्तित्व संभव नहीं है। तो आइए, पहले थोड़ी इस विषय पर चर्चा कर लें।
भारतीय विवाह-पद्धति के मूलतः दो ही रूप हैं-- व्यवस्थित-विवाह पद्धति एवं प्रेम- विवाह पद्धति। व्यवस्थित विवाह उसे कहते हैं जहाँ लड़के- लड़की के माता- पिता, दादी, मासी, चाची, मामी, ताई, पड़ोसिनें आदि किसी के भी द्वारा रिश्ते लाए जाते हैं और उनके माता- पिता देख-भालकर, अपने हैसियतानुसार दहेज इत्यादि लेन- देन की बातें करके दोनों का विवाह संपन्न करा देते हैं।
और प्रेम- विवाह वहाँ पर होता है जहाँ लड़के- लड़की स्वयं एक- दूजे को पसंद कर लेते हैं फिर परिवार की सहमति से विवाह कर लेते हैं!
विवाह के पहली श्रेणी में हालाँकि स्वजाति, स्वधर्म और स्व-बिरादरी के साथ-साथ लड़का कितना कमाता है, घरवालों की आर्थिक संपन्नता इत्यादि विषयों पर अधिकाधिक प्राथमिकता दी जाती हैं, और ये सब अपनी पसंदानुसार होने पर लड़के- लड़की की पसंद और उनके विचारों, भावनाओं के मेल ( compatibility) इत्यादि बातों को ताक पर चढ़ा दिया जाता हैं। वहीं दूसरी श्रेणी के विवाहों में कहीं-कहीं इन नियमों में थोड़ी सी शिथिलता बरती भी जाती हैं। और अंततः 'शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा' क्योंकि ' जोड़ियाँ तो ईश्वर बनाकर भेजता है" कहकर बेमेल से बेमेल युगलों को भी शादी के लिए मना लिया जाता है!
जहाँ तक युगलों के बीच आपसी प्रेम और विश्वास का संबंध है इसके लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की प्रसिद्ध उक्ति तो है ही--" साहचर्य से प्रेम पलता है।" प्रेम तो पलता जरूर है परंतु साहचर्य में हमेशा प्रेम का जन्म हो ही-- ऐसा जरूरी तो नहीं है! (जन्मेगा तो पलेगा जरूर) कभी- कभी द्वेष और हिंसा भी जन्म ले बैठता है। और इसी घृणा को हवा देने के लिए तुलना, अहं और पितृसत्तात्मकता की भावनाएँ अधिकांश परिवारों में बहुतायत में मिल जाया करती हैं।
और इन्हीं सब कारणों से फिर क्लेश का जन्म होता है! और इसी क्लेश की अंतिम परिणति होती है- तलाक!
तो अब तक यह तो स्पष्ट हो ही चुका है कि तलाक का मुख्य कारण है हमारी- गोल-मोल, बिना सोचे- समझे बनाए गए रिश्ते और परंपरा की दुहाई देती आधुनिक विवाह पद्धति है। यद्यपि इसके और भी कई कारण हो सकते हैं यथा--
घरेलू-हिंसा, शिक्षा दर में वृद्धि, जागरूकता, प्रतिवाद का साहस, पारिवारिक दखलंदाज़ी, जिम्मेदारी से मुँह- मोड़ना, विवाहेतर प्रेम-संबंध, अपरिपक्व मानसिकता आदि- आदि।
अब तलाक इन सब चीज़ों से मुक्ति ही तो दिलाता है। दो युगल अगर किसी भी तरीके से साथ नहीं रह सकते यानी सुलह अगर संभव न हो सके या घरेलू हिंसा का वातावरण हो या अहं का मामला हो तो शांतिपूर्ण तरीके से पति- पत्नी दोनों के अलग हो जाने को मैं गलत नहीं मानती। बल्कि न चाहते हुए भी किसी संबंद्ध को ढोते रहने से कहीं अच्छा है संबंद्ध- विच्छेद हो जाना!
नहीं,आप शायद गलत समझ रहे हैं-- मैं विवाह रूपी इस प्राचीण एवं पवित्र संस्था के बिलकुल भी खिलाफ नहीं हूँ और न ही तलाक का पक्षधर हूँ-
[मैंने अपने करीबी कुछ लोगों का तलाक देखा हैं-- यकीन मानिए डाइवोर्स बहुत ही दर्दनाक ( read messy )होता है , खासकर उन बच्चों के लिए जिनके माता-पिताओं नेअलग रहने का निर्णय ले लिया है] बल्कि इसके सिद्धांत और व्यवहार के बीच में जो खाई है ( यह आधुनिक समय की ही देन ही अधिक समझी जानी चाहिए--यद्यपि प्राचीनकाल में सामाजिक व्यवस्था काफी सरल थी) और उस खाई में कोई मासूम और बेकसूर न गिर जाए कभी-- इस ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ।
बस, यही बताना चाहती हूँ कि अगर कुछ गलत हो जाए, हम अपनी ज़िन्दगी में कोई गलत निर्णय ले लें तो उसे भविष्य में सुधारने का भी तो एक मौका होना चाहिए! और विवाहरूपी गलती को सुधारने का एक अच्छा तरीका हो सकता है--तलाक!
जब सारे रास्ते बंद हो जाए-- तो एकमात्र इसी राह पर चलकर अपना खोया हुआ मान- सम्मान और मानसिक शांति को वापस पाया जा सकता है। और पुरातन सभी तिक्तताओं को भुलाकर जीवन का एक नया अध्याध शुरु किया जा सकता है!
आँकड़ों के अनुसार पिछले दो दशकों में तलाक के मामले बढ़कर दुगुने हो गए हैं। यह अत्यंत चिंता का विषय है क्योंकि अगर ऐसा ही चलता रहेगा तो कुछ ही वर्षों में लोग विवाह करने से कतराने लगेंगे ( आज के जेनरेशन में कमिटमेंट फोबिया बहुत बढ़ने लगा है) जो हमारी जाति, धर्म एवं कौम तीनों की ही बढ़त के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है।
अतःएव आवश्यक यह है कि समय रहते हम नए सिरे से सोचना शुरु करें और अपनी विवाह- पद्धति को अद्यतन करें। एवम् पुराने संस्कारों की दुहाई देकर नवीनों को चलाने की कतई कोशिश न करें।
श्रीहरिकृष्ण प्रेमी जी के इन्हीं शब्दों के साथ अपने कलम को विराम दूँगी--
" प्राचीन हो कि नवीन छोड़ो रूढ़ियाँ जो हो बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली है यह विचार अलीक है
जैसी अवस्था हो वहाँ व्यवस्था ठीक है।"
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