जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कहानी -"गुंडा" की समीक्षा [प्रसाद द्वार विरचित यह कहानी मेरी अन्यतम प्रिय कहानियों में से एक है। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर इसे पढ़ने का अवकाश मुझे मिला है- पहली बार शायद ग्यारहवी-बारहवी कक्षाओं में हिन्दी कोर पाठ्यक्रम के अंतर्गत इसे पढ़ा था।
दूसरी बार शायद हिन्दी स्नातक के पाठ्यक्रम में जब यह कहानी रखी गई थी, तब पढ़ा था। स्नातकोत्तर श्रेणी में मैंने यदि स्पेशल पेपर में प्रेमचंद के स्थान पर प्रसाद लिया होता तो कदाचित एक बार और यह कहानी पढ़ने को मिलता!
एक बात यहाँ अवश्य कहना चाहूँगी कि इस कहानी को हर बार पढ़ने के बाद मैं अत्यंत रोमांचित हो उठती हूँ। प्रत्येक बार बाबू नन्हकू सिंह का उज्ज्वल चरित्र, उनका बलिदान का आदर्श एक ऐसा छाप मेरे मन पर छोड़कर जाता है कि क्या बतायूं? लगता है कि आज भी कहीं ऐसे लोग होते तो?
आज जहाँ मानवीय मूल्यों का अत्यधिक ह्रास हो रहा हैं वहाँ नन्हकूसिंह जैसे चरित्रों की बहुत आवश्यकता है।]
समीक्षा-- यह एक राजनैतिक-सामाजिक कहानी होते हुए भी मुझे ऐसा लगता है कि जैसे इस कहानी का मुख्य विषय प्रेम है। निःस्वार्थ अकलूष प्रेम। एक तरफा प्रेम जो अलभ्य है किंतु जिसपर सर्वस्व लुटाया जा सकता है। स्वयं प्रसाद जी ने अपनी महान कृति कामायनी में जिस प्रेम को कुछ इस तरह से परिभाषित किया है---
" इस अर्पण में कुछ और नहीं,
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ ,और न कुछ लूँ,
इतना ही सरल झलकता है। "
बाबू नन्हकू सिंह इस कहानी के नायक हैं। वे ज़मीदार निरंजन सिंह के बेटे हैं। उन्हींके चरित्र के आधार पर इस कहानी का नाम गुंडा पड़ा है। अतः इसे एक चरित्र-प्रधान कहानी की संज्ञा दी जा सकती है।
नन्हकूसिंह के गुंडईपन की परिभाषा प्रसाद कहानी के आरंभ में कुछ इस प्रकार देते हैं-
" वीरता जिसका धर्म था, अपनी बात-बात पर मर मिटना, सिंह वृत्ति जीविका ग्रहण करना, प्राण भिक्षा माँगनेवालों कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वंद्वी पर शस्त्र न उठाना, सताए गए निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग गुंडा कहते थे।"
बाबू नन्हकू सिंह के अलावा इस कहानी के अन्य पात्र हैं-- राजमाता पन्ना, उनका पुत्र राजा चैतसिंह, दुलारी बाई, नन्हकू सिंह के साथी मलूकी, कुबरा मौलवी, कोतवाल चेतराम, बाबू मणिराम आदि।
कहानी की कथा संक्षेप में कुछ ऐसी है-- बाबू नन्हकू सिंह की प्रेयसी थी पन्ना। परंतु राजा बलवंत सिंह द्वारा उसे बलपूर्वक रानी बना लिए जाने पर नन्हकू सिंह अपना घायल हृदय लेकर काशी का गुंडा बन जाते हैं। उन्होंने नाटक- तमाशों में दोनों हाथों से अपनी जमींदारी लुटाई है। किंतु उनका चरित्र बहुत उज्जल है। वे चिरकुमार है, हमेशा औरतों का इज्जत करने वाले। वे जनता के सच्चे हमदर्द हैं।
दुलारी के शब्दों में--" यह झूठ है। बाबू साहब जैसे धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं। कितनी विधवाएं उनकी दी हुई धोती पहनती है। कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है। कितने सताए हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है।"
दुलारी पुनः कहती है--
" नहीं सरकार, मैं शपथ खाकर कहती हूँ कि बाबू नन्हकू सिंह ने कभी मेरी कोठे पर पैर भी नहीं रखा।" परंतु इतने वर्षों बाद भी वे पन्ना को भूले नहीं है। आज भी पन्ना के नाम पर उनकी आंखें तर हो जाती है। वे यह सब गुंडागिरि इसलिए करते हैं ताकि उनके प्राण निकल जाए। वे दुलारी के पूछने पर कहते हैं-
-"हृदय को बेकार ही समझकर तो उसे हाथों में लिए फिर रहा हूँ। कोई कुछ कर देता है-कुचलता-चीरता-उछालता। मर जाने के लिए तो सबकुछ करता हूँ पर मरने नहीं पाता।"
और सच में अब राजमाता बन चुकी पन्ना की सबसे मुसीबत की घड़ी में प्राण देकर वे उसकी और उसके बेटे की रक्षा करते हैं। गुंडा शब्द में एक व्यंग्य निहित है। शायद प्रसाद , अच्छे काम करने वाले व्यक्ति को मान और प्रतिष्ठा देने के स्थान पर अकसर समाज द्वारा जो उनके माथे पर बदनामी का ठप्पा लगा देने की प्रवृत्ति है , उस ओर इंगित करना चाहते है।
कहानी का देशकाल अठारहवीं शती का उत्तरार्ध है यानी कि 1780 का दशक। और दृश्यपट है काशी अर्थात् बनारस की। उस समय काशी में नवाबी शासन का पतन हो चुका था और ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज काशी पर कब्जा जमाना चाहती थी। काशी के तथाकथित हिन्दू नरेश राजा चैतसिंह पिता की मृत्यु के बाद नए-नए राजा बने थे, अतएव एक कमजोर शासक थे जो उस वक्त वहाँ पर होनेवाले राजनैतिक उथलपुथल को रोकने में असमर्थ थे ।
कुबरा मौलवी जैसे गद्दारों का सहारा लेकर ईस्ट -इंडिया कंपनी के रेजिडंट साहब जो उस समय भोली-भाली जनता और कमजोर राजसत्ता पर अपनी विनाश -लीला चला रही थी, इसका सुंदर वर्णन है, इस कहानी में।
कहानी में कहानीकार की भाषा-शैली अत्यंत उपयुक्त है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावलियों का प्रयोग कहानीकार ने किया है।
कहानी के प्रारंभ में उपनिषद, अजातशत्रु, ब्रह्मविद्या, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, वैष्णव धर्म आदि शब्दों के प्रयोगों के माध्यम से प्रसाद जी के भारतीय संस्कृति का अगाध ज्ञान और विद्वत्ता झलकता है। चरित्रों की भाषा एवं संवाद अत्यंत सटीक और पात्रानुकूल है।
अंत में , प्रेम को न पाकर भी, अवसर आने पर उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने का आदर्श प्रस्तुत करती हुई प्रसाद की यह कहानी उनके द्वारा लिखी कहानियों में, मेरे हिसाब से, सर्वश्रेष्ठ कहानी है। अनंत, कभी न खतम होनेवाली प्रेम को दर्शाती,इस कहानी की मेरी सर्वाधिक प्रिय पंक्तियाँ हैं--
" एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं, जिनमें जन्म-जन्मांतर का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था।" प्रेम की धुरी यदि विश्वास नहीं तो और क्या है?
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
सुंदर समीक्षा
बहुत आभार आपका, सोनू जी🙏
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