काले रंग की वह लड़की!

एक लड़की के केवल रंग गोरा न होने के कारण उसको किस तरह से नीचा दिखाया जाता था--

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Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 01 Nov, 2020 | 1 min read

मैंने कभी उन्हे देखा तो नहीं परंतु रिश्ते में वे मेरी चचेरी बुआ लगती थीं। बचपन में उनके बारे में पापा जब भी मुझसे कुछ कहते थे, तो उनकी आंखे हमेशा नम हो जाया करती थीं।

उनकी भर्राई हुई आवाज अनायास बताती थी कि उनको अपनी बहन से कितना प्रेम था। बहुत ही कम उम्र से सबकी उपेक्षा पा पाकर चंद दिनों की बीमारी में वे चल बसी थी, वें। ठीक से उनका इलाज करवाने की बात भी किसी के ध्यान में न आया था। वे लोग शायद इसी इंतजार में थे कि किसी तरह उनसे पिंड छूटे!

वे मेरी सोनादादी की इकलौती बेटी थी। हालांकि सोना दादी के और भी तीन बेटे थे। यह बेटी, जिनका नाम श्यामा था, दूसरे नंबर में थी, यानि कि उनसे बड़ा एक भाई और छोटे दो भाई थे।

तीन भाइयों के बीच में एक बहन तो आमतौर पर बहुत प्यारी हुआ करती हैं परंतु मेरी बुआ की किस्मत ही खराब थी । वे जन्म के समय से ही माँ- बाप की आंख की किरकिरी बन गई थी। उनका अस्तित्व गले में फँसी हुई उस हड्डी के समान थी, जिसे न तो निगला जा सकता था और न उगला। उनका दोष सिर्फ इतना ही था कि वह गोरी पैदा न हो सकी थीं। और होती भी कैसे-- बिलकुल अपनी माँ पर जो गई थी!

सोना दादाजी यद्यपि बहुत गोरे थे परंतु श्यामा बुआ के हाथ में यह थोड़ी ही था कि वे माँ पर जाएंगी अथवा पिता पर। लेकिन उनके परिवार के पास इतनी अक्ल कहाॅ थी? हमारे समाज की यह कैसी सोच है कि जन्म लेते ही बच्चियों को बोझस्वरूप समझ लिया जाता है। उनके शख्शियत, गुण , अच्छाइयों की कोई अहमियत नहीं होता, अपितु उनका आकलन सिर्फ और सिर्फ विवाह के मापदंड से किया जाता है।

यह कहानी जिस समय की है वह समय आज से कम से कम पचास- साठ वर्ष पूर्व का है जब लोग और भी ज्यादा पारंपरिक मान्यताओं और रूढ़ियों के पुजारी थे और अपने दिल और दिमाग से कम एवं पड़ोसी क्या कहेंगे इसके द्वारा परिचालित होते थे। और पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार अगर बेटी गोरी नहीं है तो उसकी शादी कैसी होगी? माता- पिता के लिए यही सबसे अहम चिंता का विषय हुआ करता था क्योंकि लड़केवालों को सदा से ही गोरी और सुंदर लड़कियों की चाहत होती है। अब चाहे उनका खुद का बेटा कितना भी काला और कुरूप क्यों न हो!!

ऐसे लड़कों के लिए अकसर कहा जाता है कि हीरे की अंगूठी यदि टेढ़ी हो तो भी सुंदर ही होती है। उन हीरे की अंगूठियों के चलते इन लड़कियों को आजीवन उपेक्षा झेलना पड़ता है! और लोग उन्हें उनके हिस्से का प्रेम, दुलार तक, जिनका कि हर एक बच्चा हकदार है, भी देने में कार्पण्य कर जाते हैं।

शेष लोगों की तो बात ही छोड़ दें ,कईबार सगे माता पिता तक भी ऐसे सौतले व्यवहार करने में बाज नहीं आते! ऐसी ही हालत मेरी श्यामा बुआ की भी थी। घर में उनकी कोई अहमियत न थी। कोई उनसे सीधे मुॅह बात तक न करता था। उनका श्यामा नाम भी कदाचित उनके रंग को देखकर ही रखा गया था।

भाइयों को रोज अच्छा खाने -पहनने को मिलता था लेकिन उनकी थाली में हमेशा बचा खुचा और रूखा सूखा ही आया करता था। वे भी बड़ी शांत और निर्द्वन्द्व भाव से सबकुछ सह लेती थी। रंग साफ न होने के कारण मेरे सोना दादा - दादी को लगता था कि उनकी बेटी की शादी न हो पाएगी अथवा हुई भी तो इसके पीछे उनके बहुत सारे पैसे खर्च हो जाएंगे।

इधर उनकी आर्थिक हालत इतनी भी खराब न थी। दादा -दादी दोनों नौकरी करते थे। सोना दादी एक सरकारी प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका थीं। उनके स्कूल में छात्र हालांकि बमुश्किल से चार पाँच ही थे परंतु शिक्षिकाएं अधिक ही थीं। जिन्हें दिन में मुश्किल से एक आध कक्षाएं ही लेनी होती थीं!

शिक्षिकाएं सिलाई -कढ़ाई, कभी तो अखबार आदि पढ़कर स्कूल का पूरा टाइम निकालती थी, परंतु इससे क्या? वेतन उनको पूरा सरकारी स्केल के अनुसार ही मिला करता था। और सोना दादी सुबह सुबह तैयार होकर घर का सारा काम अपनी इसी काली बेटी पर ( उनके हिसाब से वे इसी के लायक थीं) पर छोड़कर चली जाती थी और घर आकर उसकी गलती निकालकर, कोसने देकर अपना गुस्सा शांत करती थी।

जब मेरी बुआ सारा काम निपटा कर काॅलेज के लिए निकलती थी तो मेरे सोना दादाजी पीछे से आवाज देकर उनसे रोज यही एक वाक्य कहते थे, " फिर वापस मत आना, भगवान करें कि तेरा मुँह मुझे दुबारा न देखना पड़े।" और वे, यूं सबका नफरत बटोरकर जीए जा रही थी।

मेरी सगी दादी कभी- कभी अपने देवर की बेटी पर तरस खाकर कहा कहती थी "औरत की जान जल्दी निकलती ही नहीं। हजार ग़म सहकर भी उसे जीवित रहने की कला आती है।"  परंतु वे सही नहीं थी। 

पूरे परिवार में किसी को यदि श्यामा बुआ से हमदर्दी थी तो वे थे उनके बड़दा, यानी कि मेरे पापा। वे पढ़ने में बहुत अच्छी थी। घर के क्लेश से निराश होकर वे किताबों के बीच ही थोड़ी सी सुकुन ढूंढ लेती थी। उसकी सारी गोरी चचेरी, फूफेरी बहनें जहाँ गप्पे लड़ाकर, सिनेमा की किताबों ,और हीरों हीरोइनों की व्यर्थ चर्चाओं में समय गँवाकर हर वर्ष इम्तिहान में फेल हो जाया करती थी, वहीं श्यामा बुआ घर के सारे कामकाज निपटाने के बाद रात जगकर पढ़ा करती थीं और आपनी कक्षा में अव्वल स्थान पाती थी।

उनकी भाइयों को पढ़ाने के लिए जहाँ गृह शिक्षक आते थे, उसके लिए ऐसी फिजूलखर्ची की कोई जरूरत न समझी गई। वह बेचारी अपनी बड़दा ( मेरे पापा, उनके ताऊ के बेटे, जो भाइयों में सबसे बड़े थे, को बुआ बड़दा कहती थी) के पास अपना पाठ समझने जाती थी।

बड़दा भी खुद उस समय एक विद्यार्थी थे मगर बहन का पढ़ने का मन देखकर जब भी समय मिलता था, उन्हें पढ़ा दिया करते थे। 

एक और कोई था इस परिवार में जो उनकी मदद कर दिया करते थे। वे थे मेरे दादाजी। वे एक स्कूल शिक्षक के हैडमाॅस्टर थे। स्वयं भी अत्यंत मेधावी थे परंतु परिवार में सबसे ज्येषठ होने के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर नौकरी तलाशनी पड़ गई थी। इसलिए उनकी बड़ी इच्छा थी कि उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर लें।

उनके खुद के चारों बच्चों में सिर्फ मेरे पापा ही पढ़ाई में अच्छे थे। शेष उनकी तीनों बेटियाॅ, (मेरी सगी बुआएं , जिनके बारे में पहले ही लिख चुकी हूं) पाठ्य पुस्तकों से ज्यादा सिनेमा की पुस्तकों की शौकिन थीं!! अतएव अपनी भतीजी का पढ़ने का शौक देखकर मेरे दादाजी उनके लिए काॅपी किताब उपलब्ध करवाते थे।

काॅलेज के जब द्वितीय वर्ष में थी तो श्यामा बुआ को एकबार सर्दी बुखार हुआ था। मामूली सर्दी समझकर किसी ने उस बीमारी कॅ ज्यादा भाव न दिया था। मियादी बुखार दो चार- दिन में उतर जाना था। इधर बुआ को खाना भी पूरा नहीं मिलता था कभी । ऊपर से इतनी मेहनत करनी पड़ती थी।

उनका शरीर अंदर ही अंदर कब खोखला हो चला था जिसे शायद वह स्वयं भी न जान पाई थी! किसी ने भी डाॅक्टर की सलाह लेना जरूरी न समझा। उनकी ताई ने एकदिन कुछ काढ़ा बनाकर पीला दिया।

 इसके करीब एक महीने बाद पापा उसदिन काॅलेज से घर आए थे तो सोना दादा के घर से खबर आई कि श्यामा बुआ बहुत बीमार है, उन्हें डाॅक्टर के पास ले चलना है। 

डाॅक्टर को दिखाना है-- मामले की गंभीरता को समझकर पापा बदहवास उनके घर भागे। उस समय काफी रात हो चुकी थी, इसलिए कोई गाड़ी न मिल पाया । पापा ही तब उन्हें गोदी में उठाए अस्पताल ले गए ।

रातभर वे वहीं अस्रपताल में रहीं। फिर भोर होते ही उन्होंने सदा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थी।

अपने मन को तो उन्होने कबका मार डाला था,शरीर को मारने का कसर यक्ष्मा ( टी•बी•) ने पूरा कर दिया। 

ताई की बातों को झूठलाते हुए और सोनादादाजी का उनका मुंह न देखने की इच्छा को ईश्वर ने सदा के लिए मंजूर कर दिया था! *******************************************नोट: इस तरह की कहानियाॅ आज भी हमारे घरों में अनेकों की तादाद में देखने और सुनने को मिलती है। पता नहीं, कब से महिलाओं के लिए गोरा रंग उनकी सुंदरता का प्रतिमान ठहराया जाने लगा! शायद ब्रिटिशों के आगमन के कुछ समय के बाद से ही!

नहीं तो, वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक स्त्रियों का काला रंग अत्यंत ईर्ष्यणीय समझा जाता था। द्रौपदी अनन्यसुंदरी थी। परंतु उनका नाम तो कृष्णा था! है न?

जिस पद्मावती की सुंदरता पर मोहित होकर अल्लाउद्दीन मूर्छित हो गया था, वह सिंहल की राजकुमारी थी। और मेरी जानकारी के अनुसार, विषुवत रेखा के नजदीक अवस्थिति के कारण सिंहल के लोग गोरे तो आज भी नहीं होते हैं। फिर उस समय क्या रहे होंग?

तब इन  काले रंग की लड़कियों पर इतना अत्याचार क्यों??


** कुछरोज पहले अखबार में पढ़ा था कि एक महिला अपने रंग के कारण रोज रोज मिलने वाली तानों को बरदाश्त न कर पाई और आत्महत्या कर बैठी। उसी दिवंगत आत्मा को यह आर्टिकल समर्पित है।*** ************************************************  

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