निशीथ ने बीए साम्मानिक में दर्शन का विषय लिया था!। अतः हर रोज़ प्रथम वर्ष की पहली कक्षा "भारतीय दर्शन" की हुआ करती थी। हमेशा धोती और कुर्ता पहनने वाले प्रोफेसर राय अपने समय के बड़े पाबन्द थे।
वे चाहते थे कि उनकी कक्षा में प्रवेश करने से पहले ही सभी छात्र अपने निर्धारित स्थान पर बैठ जाए। ताकि वे आते ही बिना समय गँवाए अपना पाठ शुरु कर सकें! देर से आने वाले छात्रों को प्रायः प्रोफेसर साहब की कक्षा में आने की अनुमति न होती थी। वे इतनी अच्छी तरह पाठ समझाया करते थे कि हरेक छात्र उनकी कक्षा में समय रहते ही पहुँच जाते थे। उनके पढ़ाने के कायल तो सभी थे इसलिए कोई भी उनकी कक्षा में अनुपस्थित न रहना चाहता था। इस प्रकार प्रोफेसर राय सभी छात्रों के बेहद पसंदीदा प्रोफेसर हुआ करते थे।
और न चाहते हुए भी निशीथ अगले ही दिन काॅलेज पहुँचने में ज़रा लेट हो गया। और जब तक वह पहुँचा कक्षा का गेट बंद हो चुका था। प्रोफेसर साहब की यह भी एक खासियत थी कि उनके प्रवेश करने के साथ- साथ कक्षा के सारे दरवाज़े वे छात्रों से बंद करा देते थे ताकि कोई और कक्षा के दौरान अंदर न आ पाए! देर से आनेवालों छात्रों को प्रायः कक्षा समाप्त होने तक बाहर ही रुकना पड़ता था!
आज निशीथ भी मजबूरन उन बाहर रुकने वालों की कतार में जाकर खड़ा हो गया। वह बेचारा और करता भी क्या? एक तो नई जगह, ऊपर से सारे काम उसे खुद ही निपटाने थे। सुबह उठकर चूल्हा सुलगाने में ही उसे पूरे दो घंटे लग गए थे! आदत थोड़ी न थी उसको इन सब कामों की!
घर में माँ का लाडला था! और आज उसी लाडले को किसी तरह चाय बनाकर पीते- पीते काॅलेज का वक्त हो गया था! जल्दी से स्नान करके,किसी भाँति बदन पर कुर्ता और पायजामा डालकर ,अपना झोला उठाए निशीथ काॅलेज की ओर भागा! परंतु आज तो उसकी किस्मत ही खराब निकली! वह बीच में रास्ता भटक गया !!
तीन दफे लोगों से रास्ता पूछकर, तब जाकर वह काॅलेज पहुँच पाया। ग्रैबरियल ने कल जो शाॅर्टकाट उसे बताई थी, वही लेने पर इतनी विपत्ति उसके सिर पर पड़ी थी। गलती की कि अपना पुराना वाला रास्ता यदि वह लेता तो कब का काॅलेज पहुँच चुका होता!! बहरहाल, कक्षा समाप्त होते ही ग्रैबरियल उसके पास आया। उसने निशीथ से उसके देर से आने का जब कारण पूछा तो उसे देखते ही निशीथ उस पर गुस्से से बरस पड़ा,
" यार, तूने कल जो रस्ता बताई थी, उसी से आने में इतना समय लग गया!" ग्रैबरियल को उसकी अवस्था पर हँसी आ गई।
शहर में हर एक नए आने वाले को यह दिक्कत तो शुरु- शुरु में होती ही है। कलकत्ता शहर भूलभूलैया तो नहीं है, मगर यहाँ की गलियों को पहचानने में वर्षों लग जाते हैं! लेकिन ग्रैबरियल इस समय अपनी हँसी को रोककर सहानुभूति के स्वर में निशीथ से पूछा,
" जोड़ा गिर्जे से बायीं तरफ वाली सड़क ली थी या दायीं वाली?"
" दायें मुड़ गया था, मैं तो।"
" ओहो,,, तभी भटक गए ! कोई नहीं धीरे- धीरे सीख जाओगे। अच्छा एक काम करते हैं, मैं कल से जल्दी उठ जाया करूँगा और तुम्हारे घर पहुँच जाऊँगा! और कुछ दिनों तक तुम्हें अपने साथ काॅलेज लेता हुआ आऊँगा, ठीक न? अब बताओ , तुमने सुबह से कुछ खाया कि नहीं? चेहरा तो तुम्हारा रूखा- सूखा लग रहा है!"
ग्रैबरियल पार्क स्ट्रीट में रहता था उसका घर काॅलेज के बिलकुल नजदीक था। परंतु वह निशीथ के लिए रोज़ सुबह- सुबह इतनी दूर जाएगा, यह सुनकर ही निशीथ का सारा गुस्सा एक पल में ही ठंडा हो गया। पहले से ही ग्रैबरियल और आंटी जी ने उसकी इतनी मदद की है। उनसे और मदद लेना ठीक नहीं होगा। निशीथ सोचने लगा था!
परंतु इधर निशीथ को भूख भी बहुत लग रही थी। पता नहीं ग्रैबरियल सब कुछ कैसे जान जाता है!?? अतः वह गैब्रियल से बोला-- " अमा, कहाँ,,, सुबह से चूल्हा फूँकते- फूँकते ही दो घंटे निकल गए । ऊपर से धुँएँ से आँखें जलने लगी, सो अलग। नाश्ता नहीं बना पाया, आज तो! सिर्फ चाय ही पी कर आया हूँ!"
" तो चलो, पहले चल कर कुछ जलपान कर लेते हैं, फिर यहाँ कक्षाओं में वापिस आ जाएँगे। माँ कहती हैं, भूखे पेट पढ़ाई बिलकुल नहीं होती! वैसे भी, अभी पासकोर्स के मैथ्यू सर आने वाले हैं। उनकी कक्षा एक दिन नहीं भी करेंगे तो चलेगा। चलो, कैंटिन चलते हैं!"
" ठीक है, चलो! जब तुम इतना कहते हो तो।" यह कहकर दोनों दोस्त कैंटिन जाकर चाय, अंडे और बटर टोस्ट का आर्डर देते हैं और एक खाली मेज़ देखकर उस पर बैठ जाते हैं! दरवाज़े की ओर कोने की टेबुल पर एक खूबसूरत बाला पढ़ाई में मग्न बैठी हुई थी। उसने अपने आगे कई सारी पुस्तकें फैला रखी थी जिनको वह बारी- बारी से पढ़ रही थी। और बीच- बीच में अपनी नोटबुक में से कुछ नोट भी ले लिया करती थी! निशीथ आँखें फाड़कर उसी लड़की को देख रहा था! लड़कों का काॅलेज था। पर यहाँ इतनी खूबसूरत लड़की कहाँ से आई? उसका कौतुहल होना स्वाभाविक ही था। फिर, इस उम्र के लड़कों में विपरित लिंग के प्रति एक अमोघ आकर्षण होता है, जिसकी उपेक्षा कर पाना भी निशीथ के लिए संभव नहीं था!
" इतिहास विभाग में नई-नई आई हैं! प्रोफेसर हैं! परंतु वयः से अभी भी छात्रा ही लगती हैं, है न?" निशीथ को अपलक उस लेडी प्रोफेसर की ओर निहारते देखकर ग्रैबरियल ने हौले से अपना मुँह उसके कानों के पास ले जाकर कहा। इतना सुनते ही निशीथ ने झट अपनी आँखें दूसरी ओर फेर ली। ग्रैबरियल पुनः फुसफुसाकर बोला---
" अच्छा यार बताओ, तुम्हारी काॅलोनी की सुंदर बालाओं से तुम्हारा परिचय हुआ कि नहीं? एक से बढ़कर एक सुंदर लड़कियाँ वहाँ रहती हैं!! सुंदर और पढ़ी- लिखी, स्मार्ट और आधुनिक भी!! कुछ एक तो लोरेटो काॅलेज में पढ़ती हैं तो कई एक जोड़ा-गिर्जे के पास वाले लड़कियों के स्कूल में पढ़ने जाती हैं। तुम्हारी उनमें से किसी से अब तक भेंट नहीं हुई?"
" अमा कहाँ यार,, कल रात को ही तो पहुँचा हूँ। और तुम ही तो साथ गए थे छोड़ने!! फिर सुबह उठकर काॅलेज आ गया। भेंट करने का समय कहाँ मिल पाया?"
" कोई न, धीरे- धीरे सबसे मुलाकात हो ही जाएगी तुम्हारी। तुम इतने सुदर्शन हो!! देखना लड़कियाँ स्वतः तुम्हारे पास खींची चली आएगी।"
" शश्श,, धीरे बोलो, ग्रैबरियल! प्रोफेसर साहिबा सुन लेंगी।" तब तक छोटू उन दोनों के टेबल पर उनका नाश्ता रख गया था। बातचित छोड़कर अब दोनों दोस्त अपने- अपने प्लेट पर टूट पड़े। रात को घर जाकर जिन्दगी में शायद पहली बार निशीथ ने ठीक ठाक चूल्हा सुलगाकर अपने लिए रोटी-सब्ज़ी बनाई! इससे पहले इस काम को करने की उसे कभी ज़रूरत ही न पड़ी थी। घर में माँ थी, बड़ी दीदी का ससुराल भी नज़दीक ही है।
रसोई की सभी जिम्मेदारियाँ वे ही दोनों संभाल लेती थीं। काॅलेज से आते समय निशीथ आटा, दाल, चावल, कुछ भाजी, सब्ज़ी, डबलरोटी और दूध लेता हुआ आया था। फिर उसने अपने हाथों से कुछ टेढ़ी- मेढ़ी रोटियाँ सेंक कर और आधकच्ची सब्ज़ी बनाकर खाई। अपने हाथ की रसोई कभी किसी को बुरी नहीं लगती है। सो आधी पक्की रोटियाँ, बिना नमक की सब्जीं के साथ निशीथ को बड़ी स्वादिष्ट लगी। उसका जी तृप्त हो उठा था! खा लेने के बाद उसने किताब काॅपी मेज़ पर खोलकर अपना उस दिन का पाठ याद करने बैठा! परंतु मेज़ पर बैठने के साथ ही साथ उसे जम्हायाँ आने लगी थी! दिन भर का थका हुआ था। ऊपर से रसोई के लिए इतना परिश्रम,,, उसके थके- हारे शरीर ने जवाब दे दिया था! जब और पढ़ा न गया तो निशीथ किताबों के बीच में ही अपनी हथेली पर सिर रखकर सो गया! सोते- सोते उसे लगा कि जैसे कि वह अपने गाँव पहुँच गया है! और उसकी माताजी उसे पुकार रही है। उसने स्पष्ट अपने कानों से सुना--
" निशीथ, ओ निशीथ,,, सो गए क्या, बेटा?! आओ उठ कर कुछ खा लो! तुम्हारे लिए खाना लेकर आई हूँ।"
" आया माँ!" निशीथ तुरंत बोला। और वह कुर्सी पर से उठ कर खड़ा हो गया! कमरे के साथ सटा हुआ बरामदा इस समय खुला हुआ था। निशीथ ने शाम को ही आरामचौकी को वहाँ पर खिसका दिया था। सोचा था,सुबह वहीं बैठकर चाय पीएगा! अब उसे लगा कि माँ उसी आरामचौकी में बैठी- बैठी उसे आवाज़ दे रही है,
" खा लो बेटा, और कब तक तुम्हारी थाली लिए बैठी रहूँ?"
क्रमशः----
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