मैं उस दिनों, कोई तीसरी या चौथी कक्षा में रही हूँगी, जब "ईदगाह" पढ़ी थी। उस दिन छोटे हामीद को पढ़ने के बाद लगा था, कि इस हामीद को तो अपने आस पास रोज़ ही देखती हूँ--- वह कभी सड़क के किनारे अपने दोस्तों के साथ गिल्ली- डंडा खेलता है, या फिर रद्दी पड़े साइकिल के पहिए को घुमाता हुई कई बार बगल से निकल चुका है।
हामिद, मोहसिन, महमूद, नूरे सबके सब मानों आँखों के आगे धमाल- चौकड़ी मचा रहे हैं । और आज-- जब उनका 'गोदान' पढ़ती हूँ तो होरी ,धनिया, गोबर, झुनिया, सोना- रूपा के साथ- साथ मेहता- मालती, रायसाहब जैसे चरित्र जीवंत होकर आँखों के सामने घूमते रहते हैं, मानों उनको तो मैं बरसों से जानती हूँ।
उस दिन के मैं और आज के इस मैं के बीच यद्यपि बहुत कुछ बदल चुका है-- परंतु जो वस्तु आज तक एक समान है-- वह है प्रेमचंद सर्जित पात्रों की प्रासंगिकता। वह ज्यों की त्यों बरकरार है-- आज भी। अगर ऐसा कहा जाए कि जब तक देश और विश्व में हिन्दी साहित्य बना रहेगा, प्रेमचंद का नाम सदा अमर रहेगा। उनकी सदाबहार प्रसिद्धि का कारण उनकी कहानियों और उपन्यासों में ' समय को मात' देने का हुनर है।
प्रेमचंद हिन्दी के एक ऐसे अकेले अमर कथाकार हैं जिनकी खींची लकीर से आगे आज तक कोई रचनाकार नहीं जा सका। नके साहित्य में हमें जिन्दगी के मायने मिलते हैं। साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो जिसकी भाषा प्रौढ़ परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप से उसी अवस्था में उत्पन्न होता है जब उसमें जीवन की सच्चाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गई हों।
प्रेमचंद के प्रासंगिक होने के इन दस कारणों को मैं मानती हूँ:- 1) समय को मात देने का हुनर
2)साहित्य को समाज के साथ जोड़ना
3)समाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात
4)भाषा की सहजता,
5) पात्रों आसपास से लिए गए हैं
6) साहित्य में राष्ट्रीयता के तत्व
7) देशभक्ति--मातृभूमि के प्रति प्रेम
8) सादगी-- फटे जूते
9) निरंतर लेखन---
10) अक्खर व्यक्तित्व
साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह भी आवश्यक है कि वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो वह। फिर आप उसे जिस मुखौटे में चाहें लगा सकते हैं। चिड़े की कहानी और गुले बुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है।
साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गई हैं, पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा" जीवन की आलोचना" है। चाहे वह निबंध के रूप में हो चाहे कहानियों के या काव्य के उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए। ये विचार उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद द्वारा सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के, लखनऊ अधिवेशन में सभापति के आसन से व्यक्त किये गए थे।
प्रेमचंद जैसा साहित्यकार जिस समाज में था उसमें हुए बदलावों को समझने के लिए उस वक्त की साहित्यिक परिस्थितियों को जानना समझना बेहद जरूरी है। प्रेमचंद ने उर्दू-हिन्दी में प्रचलित किस्से कहानी के माहौल को यूँ ही नहीं तोड़ा। वे जिस दौर में बने उसी दौर में भारत के महत्वपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक आंदोलन भी पनपें थे। उस समय ब्राह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन और थियोसोफिकल सोसाइटी जैसे आंदोलन भारतीय समाज के आधारभूत परिवर्तन के लिए सक्रिय थे।
प्रेमचंद मानते थे, "हिन्दुस्तान का उद्धार हिन्दुस्तान की जनता पर निर्भर है।" प्रारंभ में उन पर महर्षि दयानंद का प्रभाव था। हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुढ़ियों ने उन्हें बैचेन कर दिया था। उन्होंने इन कुरीतियों, रूढ़ियों और वर्जनाओं को अपने लेखन के ज़रिए बखूबी तोड़ा है। प्रेमचंद ने अपने पहले ही कहानी संग्रह में लिखा था--" कहानियों का संबंध बुनियादी तौर पर सामाजिक परिवर्तन से है।" उनके जीवन की पहली कहानी जो उन्होंने तेरह वर्ष की अवस्था में लिखी गई थी, जातिप्रथा पर आधारित समाज के आचरण का पर्दाफाश करता है।
सन् 1903 से 1905 के दरम्यान " अराज - ए- खल्क" में प्रकाशित धारावाहिक उपन्यास ," असरारे मआविद" में उन्होंने पुरोहितवाद और धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध जमकर लिखा था। प्रेमचंद जी की भाषा सहज है, उस समय के प्रचलित संस्कृतनिष्ठ परिमार्जित हिन्दी को न अपनाकर उन्होंने "हिन्दुस्तानी " में लिखना स्वीकार किया था। इसका मतलब उनकी भाषा सहज एवं बोलचाल के निकट थी, जिसमें अरबी- फारसी और उर्दू के शब्दों का सहज समावेश मिलता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने पहले उर्दू, में लिखना शुरु किया था-- तो यही इसका कारण भी था कि उनकी भाषा क्यों इतनी उर्दू- बहुल थी।
ब्रिटिश सरकार की ज्यादतियों , सामंतवादी जकड़न, दलित यथार्थ, स्त्री- शोषण तथा मनुष्यता को रचने बुनने वाला प्रेमचंद अपने निजी जीवन में भी गाँधी जी के असहयोग आंदोलन की पुकार पर अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे बैठै थे, वह भी उस समय जब उनके दो छोटे- छोटे बच्चे थे और तीसरे का जन्म होने ही वाला था।
शुरुआत में प्रेमचंद आर्यसमाज के सक्रिय कार्यकर्ता थे। अपनी रचनाओं में आगे चलकर वे प्रगतिशील और वैज्ञानिक विचारों की ओर उन्मुख हुए। पाखण्डों से जकड़े समाज पर प्रेमचंद ने जितना प्रहार किया उतना शायद ही हिन्दी के किसी दूसरे लेखक ने किया हो।
अपने लेखन में उनकी भाषा जैसे अनायास प्रवाहित हुई है, वैसे ही जीवन में भी सादगी उन्हें पसंद थी। उनका एक फोटो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं जिसमें वे अपनी पत्नी शिवरानी देवी के संग बेठे हुए हैं जिसमें उनका एक जूता फटा हुआ है, फिर भी उनकी मुखमुद्रा में अपार प्रसन्नता छाई हुई है! उनका व्यक्तित्व भी अत्यंत अक्खर था। जिस बात को करनी की ठान लेते थे, करके ही दम लेते थे। अपनी बेटी की शादी के समय "कन्यादान" पर अड़ गए थे-- उनका कहना था कि वे अपनी संपत्ति का दान कर सकते हैं, गौदान कर सकते हैं-- परंतु अपनी आँखों की पुतली का कैसे दान करें? सच ही तो है-- किसी इंसान का दान क्योंकर दिया जा सकता हैं?
निरंतर लेखन की प्रेरणा जितनी उनसे हमें मिलती हैं उतनी और किसी लेखक से नहीं। इस प्रसंग में एक घटना उल्लेखनीय है, जिसके बारे में उनकी पत्नी ने बाद में लिखा था-- अपने अंतिम दिनों में जब वे बीमारी के कारण शय्या छोड़कर उठ नहीं पाते थे, तब भी उसी हालत में वे लिखते रहते थे। एक दिन की बात है, शायद वे अपना अंतिम उपन्यास" मंगलसूत्र " लिख रहे थे, तभी स्वास्थ्य खराब होने के कारण शिवरानी जी के टोकने पर उन्होंने कहा था--- " जिस दिन मैं न लिखूँ,उस दिन मुझे रोटी खाने का हक नहीं है।" अपने लेखन कार्य के प्रति समर्पित ऐसे निष्ठावान व्यक्ति मेरा तो क्या सदियों तक लेखक कुल को प्रेरित करने की क्षमता रखता है।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत उम्दा आलेख
शुक्रिया, अर्चना जी❤
बेहद संदेशप्रद आलेख
धन्यवाद संदीप जी?
Please Login or Create a free account to comment.