रविवार का सुबह था और मैं मज़े से बरामदे की सरदियों वाली मीठी सी धूप में कुर्सी डाले अखबार पढ़ रहा था। मेरे पैर के पास कालीन पर बैठी मेरी बिटिया रानी गुड़ियों से खेल रही थी। तभी नौकर ने आकर किसी आगंतुक के आगमन का समाचार दिया। और बोला, " बाबूजी एक आदमी आपसे मिलने आया है।"
मेरे आराम में जैसे खलल पड़ गई। सप्ताह में एक ही दिन तो मिलता है जब आराम से बैठकर अखबार को आद्योपांत निगला जा सकता है! इसलिए मैं चिढ़ गया! कौन कमबख्त इतनी सुबह मुझसे मिलने के लिए मुँह उठाकर चला आया है? वह भी बिना पहले से इत्तला दिए? मुझे इस आरामदायक मीठी- सी धूप को छोड़कर हिलने का बिलकुल भी मन नहीं हुआ।
मैं ठहरा इस शहर का एक मशहूर लेखक। आए दिन ऐसे ही भक्त मुझसे मिलने चले आते हैं। न जाने यह कौन है? यदि मिलने से मना कर दूँ तो शायद जाकर अखबार वालों को बता देगा। और उनको मौका मिल जाएगा मेरे नाम पर अनाप- शनाप छापने का। इसलिए मैं नौकर से बोला--
" रामू एक और कुर्सी यहाँ डाल दें और अतिथि को सम्मानपूर्वक यहाँ ले आ!" फिर जरा आवाज ऊँची करके मैंने अपनी पत्नी से कहा-- " सुनती हो, दो प्याली चाय भिजवा देना!" दो प्याली सुनकर जब मेरी पत्नी ने प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी ओर देखा तो मैंने उसे आँख मारते हुए कहा-- " अतिथि!" पत्नी जी बहुत समझदार थी! वे तुरंत समझ गई और रसोई घर की खिड़की से अपना अंगूठा उचकाकर जवाब दिया-- " ठीक है।"
परंतु आगंतुक का हुलिया देखकर मैं तो चौक गया! मारे आश्चर्य से कुर्सी से ऊछल पड़ा। मैं तो किसी संभ्रांत सज्जत की कल्पना कर रहा था, और यह निकला मैले कुचले कपड़ों में एक कबिलाई युवक, जिसकी अभी- अभी मूछें निकलने लगी है। पहनावा भी उसका खानाबदोशों जैसा ही है। मस्तिष्क पर ज़रा और ज़ोर डालने पर याद आया कि ,
अरे!! इस लड़के को तो दफ्तर जाते हुए मैं रोज़ ही देखता हूँ! कई रोज़ पहले ही इसकी कुनबा ने मेरे घर के नज़दीक वाले खुले मैदान पर डेरा डाले है। आजकल ऐसे कबीले बहुत कम रह गए हैं। ये वो लोग हैं जो तरह- तरह के करतब दिखाकर, घर- घर जाकर चाकू- छुरियाँ आदि तेज़ करवाकर, सीलबट्टे पड़ कलाकारी आदि करके अपनी आजीविका कमाया करते हैं।
आधुनिक काल में मिक्स ग्राइंडर के प्रचलन होने से इनको काम भी कम मिला करता है।मैंने ज़रा सख्ती से उससे पूछा, " कहो, क्या काम है? "
पास रखी कुर्सी पर बैठता हुआ वह बोला, " बताता हूँ। पहले एक गिलास पानी मिलेगा?" मैंने इधर- उधर देखा। मैं नहीं चाहता था कि ऐसे लोगों के साथ बतिआते हुए मुझे मेरे पड़ोसी देख लें। फिर रामू को इस लड़के के लिए पानी लेकर आने का आदेश दिया। पानी पीकर जरा दम लेकर वह लड़का जो बोला उसका सारांश यह है कि एक हफ्ते पहले उसकी दीदी गुज़र गई है। परंतु मरने से पहले वह मेरे नाम से यह चिट्ठी लिखकर गई है।
और बार- बार अपने इस भाई से अनुरोध करके गई है कि अपनी यह चिट्ठी और कागज़ों का यह पुलिंदा उसकी मृत्यु के बाद मुझ तक जरूर से जरूर पहुँचा दें। मैंने चिट्ठी को खोलने से पहले उन तेलचट्टे से पीले पड़े हुए कागज़ों के पुलिंदों को पहले खोला। मेरी कौतुहल अब संयम के सारे बाँध तुड़वाकर सरपट दौड़ रही थी!! मैं स्वयं को रोक न पाया।
वे कागज़ दरअसल एक वसीयतनामा था। किसी भीलनी मालती देवी ने अपनी सारी संपत्ति मरणोत्तर मेरे नाम पर करवा दी थी!! मेरे नाम क्यों??!!! मेरे आँखों के संशय को भाँपकर सामने बैठा हुआ वह लड़का जिसने अपना नाम संजू बताया था ने मेरे दूसरे हाथ में पकड़े हुए चिट्ठी की ओर इशारा किया! मैं पत्र खोलकर पढ़ने लगा,
"प्यारे राजू, क्या तुम्हें मैं याद हूँ? हम साथ- साथ खेला करते थे। एकबार बचपन में तुम्हारे हाथ से आइसक्रिम छूटकर जमीन पर गिर गया था और तुम बहुत रो रहे थे? तब मैंने तुम्हें दूसरी आइसक्रिम दिलवाई थी, तो तुमने खुशी से भरकर मुझे अपने गले से लगा लिया था! उस वक्त मैं कोई तेरह-चौदह वरस की थी और तुम भी कोई आठ नौ बरस के रहे होगे! उन दिनों हमारे कबीले ने तुम्हारे घर के नज़दीक वाले रामलीला मैदान में डेरा डाला हुआ था! हम लोग एक शहर से दूसरे शहर घूमा करते थे। परंतु एक जगह पर टिककर नहीं रह जाते थे! फिर कुछ बरस बाद जब तुम काॅलेज में पढ़ते थे। हम दुबारा तुम्हारे टाउन में आए थे। तुम उन दिनों बहुत जवान दिखते थे, और सुंदर भी!! तुम्हारी मूँछें भी आ गई थी! मैंने कई वरस के बाद तुम्हें देखा था -- तो देखती ही रह गई थी! होली का समय था तुम अपनी मित्रों की टोली के साथ आए थे। उस दिन तुमने मेरे चेहरे पर जबरदस्ती गुलाबी रंग पोत दी थी। और उसी दिन से मैं तुम्हारी हो गई थी! हमारे कबीले का यह नियम है कि अगर कोई लड़का लड़की के इच्छा के विरुद्ध उस पर रंग डालता है तो वे दोनों हमेशा के लिए एक हो जाते हैं! तुम्हारे बराबर होने के लिए मैंने उसी दिन से थोड़ा- थोड़ा पढ़ना शुरु किया। अब तो अच्छे लिखना भी सीख गई हूँ। देखो आज इस चिट्ठी को अपने हाथों से लिख रही हूँ! मेरी माई गई थी तुम्हारी माँ से मिलने। परंतु तुम ठहरे सेठ लोग। भला वे कैसे मान जातीं? पिछले वर्ष, सरदी के समय फिर आना हुआ था तुम्हारे शहर! मैं चुपके से तब तुम्हें देखने के बहाने तुम्हारे घर के सामने से गुज़री थी। तुम्हारी बेटी बिलकुल गुड़िया सी दीखती है। तुम्हारी बीवी भी बहुत सुंदर है। हमेशा खुश रहना!" मालिनी, मुझे अचानक एक नाक खींचती हुई काली कलूटी भीलनी की याद हो आई, जिसको बचपन में मैं बहुत तंग किया करता था! मुझे यह भक याद आया कि कैसे एकबार गुस्से से उसको मैं पीट दिया था और धक्का मारकर ज़मीन पर गिरा दिया था। उसके माथे से तब खून निकल आया था, जिसे देखकर मैं बहुत डर गया था कि कहीं ये जाकर मेरे पिताजी से शिकायत न कर दे। पर मुझे अचरज में डालकर उस दिन वह चुपचाप वहाँ से चली गई थी। किसी से कुछ न कहा था! और मैं भी मार खाने से बच गया था! इसी तरह और भी दो - चार ऐसी ही घटनाओं की याद मुझे हो आई जिस दौरान इस लड़की ने मुझे बचा लिया था। उसके कई सारे उपकार थे मुझ पर! मैंने संजू से पूछा, " तुम्हारी दीदी को क्या हुआ था?" " कर्कट रोग " ( cancer) कहकर एक गहरी साँस लेकर वह मौन हो गया। " तो उनका उपचार क्यों नहीं करवाया?" " दीदी ने मना कर दिया था! वे खुद भी जड़ी - बूटी का उपचार जानती थी। वही सब किया था।"
मैं हमेशा से उस भीलनी की उपेक्षा करता रहा और वह मुझे बार- बार बचाती रही!! स्वयं दुःख और वेदना सहती रही परंतु कभी भी किसी से कोई शिकायत न की और न ही कोई मदद ही माँगी! उल्टे जब- जब उसे मौका मिला अपने निःशर्त प्रेम को मुझ पर न्यौछावर करती रही। और मरते समय भी अपनी सारी तथाकथित संपत्ति मेरे नाम कर गई! इस एकतरफे पवित्र प्रेम और उसे करने वाली के प्रति कृतज्ञता से मेरी आँखों से दो बूँद पानी छलक पड़े। शायद यही उसकी जीवनपर्यंत प्रेम और तपस्या की एकमात्र स्वीकृति थी।
(एक अनूदित कहानी: मूल लेखक यद्यपि फ्रांसीसी कहानीकार Guy de Maupassant हैं। मैंने सिर्फ इसे अपने शब्द दिए हैं😀)
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